श्री राम आगे सीता की खोज करते हुए बढे आगे रस्ते में जाते हुए वे शबरी के आश्रम में जा पहुंचे , शबरी जी ने श्री राम चन्द्र जी घर में आते देखा तो , उन्हें मुनि मतंग जी का कहा हुआ बात याद आया। शबरी जी तुरंत दोनों भाइयो के पैरो में गिर पडी , वे प्रेम में इतने मगन हो गयी की उनके मुंह से कोई वचन नहीं निकलता है , बार बार श्री राम के चरणों में सर नवा रही है। फिर उन्हों लेकर तुरंत दोनों भाइओ के चरण धोए। और आसन दिया बैठने को। उन्होंने रसीले और सुन्दर कंद मूल और फल लेकर श्री राम को दिया। प्रभु ने बार बार प्रशंसा किया और बड़े प्रेम से खाया। वे हाथ जोड़कर प्रभु के सामने खड़ी हो गई और कहती है की मई किस प्रकार आपकी स्तुति करू, मई नीच जाती की हु और मंद बुद्धि भी हु। जो अत्यन्त अधम है , हे पाप नशन मैं मंद बुद्धि हु। इस पर श्री राम कहते है हे शबरी सुन मैं तो सिर्फ एक भक्ति का ही सम्बन्ध ही मानता हु।
फिर भगवान उससे कहते है की शबरी सुन मैं तुम से नवधा भक्ति बताता हु।
- पहली भक्ति है संतो की सत्संग।
- दूसरी भक्ति है मेरी कथा प्रसंग।
- तीसरी भक्ति अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा करना।
- चौथी भक्ति है कपट छोड़कर मेरे गुणसमुहो का गान करे।
- पाचवा भक्ति है मेरी मंत्र (राम ) का जप। और मुझमे ढृढ़ विश्वास जो वेदो में प्रसिद्ध है।
- छठवा भक्ति है इंद्रियों का निग्रह
- सातवां भक्ति है पूरी जगत भर में सिर्फ मुझे देखना (राममय)
- आठवीं भक्ति है जो मिले उसी में सांतोस करना
- नवी भक्ति है सरलता और कपट रहित बर्ताव करना ह्रदय में मेरा भरोसा रखना।
आगे प्रभु कहते है हे शबरी अगर इन नवो में से कोई भी एक अगर किसी स्त्री या पुरुस में है तो वो वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरे दर्शन का परम अनुपन फल यह है की जिव अपने सहज स्वरुप को प्राप्त हो जाता है।
आगे श्री राम कहते है की हे भामिनि अगर तुझे मेरे जानकी के बारे में पता हो तो बता , यह सुन के शबरी कहती है की हे प्रभु आप पम्पा नमक सरोवर को जाइये आपको वहां सुग्रीव से मित्रता होगी , वही सब हाल बताएगा। फिर कहती है हे भगवान आप तो सब जानते है फिर भी आप मुझसे पूछते है।
सब कथा कहकर भगवान के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से
देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। प्रभु ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले। दोनों
भाई अतुलनीय बलवान् और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प्रभु विरही की तरह विषाद
करते हुए अनेकों कथाएँ और संवाद कहते हैं।
श्री राम कहते है , हे लक्ष्मण! जरा वन की शोभा तो देखो। इसे देखकर
किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और
पशुओं के समूह सभी स्त्री सहित हैं। मानो वे मेरी निंदा कर रहे हैं। ऐसे ही प्रभु
अनेक लीलाएं करते हुए आगे बढ़ते और पम्पा सरोवर के नजदीक पहुंचते है।
समाप्त "शबरी "
अगला भाग "श्री नारद और शहरी राम संवाद "
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