Friday, 1 April 2016

सीता स्वयम्बर


Lord-Rama-Sita-HD-wallpaperदोनो भाइ रंगभुमि मे पहुच गये ऐसा खबर पाते हि नगर वासीयो का भिड इकठा हो गया, सभी काम काज भुलाकर चल पडे,  जब जनक जी ने देखा की अब उचित भिड हो गया है तो उन्होने सेवको बुलाया और कहा की सब को यथा सम्भव आसन दो, उनके कहे अनुशार सेवको ने सबको विनम्रता से आसन प्रदान किया, उसी समय दोंनो भाइ वहा आये, राजाओ के बिच मे दोवो भाइ मानो तारो के बिच सुर्य हो.

जो जीस प्रकार देख रहा था उसे प्रभु उसि प्रकार दिखाइ दे रहे थे, राजाओ को शूरवीर, कुटीलो को देख कर भय हो रहा था, जो राक्षश राजाओ के भेश मे बैठे थे उन्हे प्रभु साक्षात मृत्यु लग रहे थे, जनक समेत रानीया उन्हे बच्चो के सामान देख रही थी. उन्हे देखकर सब लोग खुश हुए

एक मंच जो सबसे सुन्दर था वहा पर राजा जनक ने दोनो भाइयो को बैठाया, राम को देख्कर सारे राजा लोग हतोत्साहित होकर बैठ गये और उनके दिमाग मे एक ही ख्याल आ रहा था कि धनुष तो श्री राम ही तोडेंगे. राजाओ ने तो मन ही मन यहा तक सोच लिया की अगर शिव जी की धनुष कोइ नही भी तोडेगा तो भी सीता जी राम के गले मे ही वर माला डालेगी, दुसरे राजा जो विवेक से अन्धे और अभीमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हसे और कहने लगे की धनुष तोडने पर भी आसानी से हम विवाह नही होने देंगे सीता तो हमारी ही होंगी, और बिना तोडे तो सीता से कोइ व्याह ही नही सकता, सामने काल ही क्यु ना आजाये हम सीता से व्याह करेंगे, ये बात सुनकर धर्मात्मा राजा लोग मुस्कुराये और कहा आप राजाओ का गर्व दुर करके राम यहा से सीता को ले जायेंगे और सब से बडी बात राम को हरा ही कौन सकता है, तुम राम को भग्वान और सीता को माता सोचकर उन्हे पाने का अभिलाषा छोड दो और उनका दर्श्न कर अपने इस जन्म को धन्य कर लो, देवतागण भी आकाश मे अपने विमानो मे सवार होकर देखकर खुशी व्यक्त कर रहे थे.

तब सुभ अवशर जानकर जनक जी ने सीता जी को बुला लिया, सीता जी की सखीया गीत गाते हुये उन्हे लिवा लाती है, सीता माता इतन सुन्दर लग रही थी मानो वो अतुलनिय हो उनकी तुलना ना ही किसी नारी या किसी देवी से की जा सकती है, सब प्रकार के आभुषणो से सजी सीता माता रंग्भुमी मे पैर रखती है, उनके आते ही सारे स्त्री पुरुष खुबसुरती को देखकर मोहीत हुवे बिना नही रहे, सीताजी मन ही मन राम के बारे मे सोचती है, सीताजी ने दोनो भाइयो को मुनी के पास बैठा देख कर देखती ही रह गयी, परंतु गुरुजनो और बडे लोगो के समाज को देखकर सीता माता सकुचा गयी. माता सीता और राम को देख कर किसी का भी नजर ही नही झुकती और मन ही मन वे सब विधाता से प्रार्थना करते है की हे विधाता जनक जी की बुद्धी सुधार दीजिये ताकी वो बीना सर्त ही राम का विवाह सीता से कर दे.

तब राजा जनक ने भाटो को बुलाया और कहा जाकर सब से हमारी प्रण बता दो खुश होकर भाट सबको बताने जाते है, भाटो ने कुछ इस प्रकार कहा: हे पृथ्वी के पालन करने वाले सब राजागण सुनिये हम अपनी भुजा उठाकर राजा जनक का प्रण सुनाते है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको पता है, इस धनुष को बडे राजा रावण और बाणासुर भी नही उठा सके है उन्होने इस धनुष को उठाना तो दुर की बात है इसे छुवा तक नही, देखकर ही चुपचाप निकल गये, आज उसी धनुष को जो राज महल मे तोडेगा उसी को सीता जी हठपुर्वक वरण करेंगी, प्रण सुनकर राजा लोग ललचा उठे और मन ही मन अपने इश्टदेवो को याद कर चले वे बडे घमन्ड से धनुष की ओर देखते है फिर अपना सारा बल लगा देते है फिर भी धनुष नाही हीलता है और उठता है, कुछ विवेकी राजा तो मजदीक ही नही आते है, मुर्ख राजा जिन्होने अपना ताकत आजमाया वे लाजाकर जा रहे थे, तब दस हजार राजा एकबार मे कोशिश करते है फिर भी धनुष नही हिलता, सब राजा उपहास के लायक हो गये.राजा लोग हारकर अपने समाज मे जाकर मे जाकर बैठने लगे.

ये सब देखकर जनक ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध से सने हुवे थे ! मैने जो वचन प्रण ठाना था उसे सुनकर पृथ्वी के हर कोने से राजा आये भेश बदलकर देवता और दानव भी आये और भी बहुत से रण्धीर वीर आये परंतु धनुष को तोडकर मनोहर कन्या, बदी विजय और अत्यंत कीर्ती को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को बनाया ही नही हो.  अब कोइ वीरता का अभीमानी राजा नाराज ना होना मैने जान लिया पृथ्वी वीरो से खाली हो गयी है, अब आशा छोडकर अपने अपने घर जाओ; लगता है ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नही है, यदि प्रण छोडता हू तो पुण्य जाता है, मै कुछ नही कर सकता कन्या को कुवारी रखने के अलावा, यदी मक़ि जानता की पृथ्वी वीरो से खाली पडी है तो मै यह प्रँण ही ना करता, जनक का वचन सुनकर सारी स्त्री पुरुष जानकी जी की ओर देखने लगे परंतु लक्ष्मण तनमना उठे और क्रोध से लाल हो गये, बडे भाइ के डर से कुछ कह भी नही पा रहे थे, पर जनक के वचन उन्हे बाड से लगे और उनसे रहा नही गया तो उन्होने राम को शिर नवाकर बोले- रघुवंशियो मे कोइ भी जहा जता है, उस समाज मे कोइ भी ऐसे वचन नही कहता है, जैसे वचन जनक जी ने रघुकुलशिरोमणी श्री राम के उपस्थिती मे जनक जी ने कहा है, यदी आपकी आज्ञा पाउ तो पुरे ब्रह्मांड को गेन्द कि तरह उठा लु, और उसे कचे घडे की तरक़्ह फोड डालु , मै सुमेरु पर्वत को मुली की तरह तोद सकता हु, धनुष को कमल की डंडी की तरह चढाकर सौ योजन तक दौद सकता हु,  आपके प्रताप से धनुष को कुकुरमुते की तरह तोड दु, यदी ऐसा ना करु तो प्रभु के चरणो की कसम कभी धनुष और तर्कश को हाथ ना लागाउ, ज्यो ही लक्ष्मण जी क्रोधभरे वचन बोले पृथ्वी डग्मगा उठी सभी लोग और सभी राजा लोग डर गये, सीता जी को खुशी हुआ और जनक जी सकुचा गये, गुरु विश्वामित्र जी, श्री रघुनाथ जी और सब मुनी खुश हुये, तब श्री राम जी ने इशारे से लक्ष्मण जी को मना किया और प्रेम से अपने पास बैठा लिया.

विश्वामित्र जी शुभ समय जानकर श्री राम से बोले हे राम उठो और शिवजी का धनुष तोडकर जनक का दुख मिटाओ, गुरु के वचन सुनकर श्री राम ने गुरु के चरणो मे शिश नवाया और सहज स्वभाव से उठ खडे हुए, राजाओ के आशारुपी बादल छटने लगे, मुनी और देवता खुश हुए और फुलो की बरसात करने लगे, राम ने पितरो और देवताओ की वन्दना किया और अपने पुण्यो को याद किया उधर जनक की रानी रोते हुए सीता की सखियो को बुलाकर कहती है की ये रामजी तो बालक है ओइ तो उनके गुरु को समझाये ऐसा हठ सही नही है, जिस धनुश को रावन और बाणासुर जैसे राजा हिला भी नसके इसे ये बालक राम कैसे तोड सकते है वे सोचती है की गुरु ने इस बालक क्यो ऐसा अज्ञा दिया राजा जनक तो बुद्धीमानी है वे क्यु नही रोक रहे है, तब सखी ने धिरज बन्धाया और कहा कि हे रानी राम को छोटा होते हुए भी छोटा ना समझे वे तो तकत के भंडार है और वे ही इस धनुष को तोड सकते है, ऐसे वचन सुनकर रानी का दिल खुश हुआ, वे व्याकुल होकर देवताओ से प्रार्थाना करती है और कहती है की हे भगवान इस धनुष के भार अत्यंत कम कर दिजिये . उधर सीता जी मन ही मन धनुष से विनती करती है की, हे धनुष अब तो तुमपर ही आशा है तुम्ही हल्का हो जाओ और.

इधर जब लक्ष्मण जी ने देखा की राम धनुष की तरफ देख रहे है तो उन्होने खुश होकर ब्रह्माण्ड को अपने पैर से दबा लिया और कहा हे दिग्गजो, हे कच्छ्प , हे वाराह , धीरज से पृथ्वी को पकडे रहो श्री राम अब धनुष तोडने वाले है मेरी अज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ. राम ने सबके तरफ देखा सब को व्याकुल पाया सीता को कुछ ज्यादा ही व्याकुल देख कर राम ने धनुष तोडने की सोचा, मन ही मन उन्होने गुरु को प्रडाम किया और फुर्ती से धनुष उठा लिया, तब धनुष बिजली कि तरह आकाश मे चमक उठा धनुश को उठाते, चढाते और खिचते किसी ने नही देखा अर्थात ये तिनो इतनी जल्दी हुअ कि किसि को कुछ समझ नही आया बस सब ने राम को हाथ मे धनुष लेकर खडे देखा और राम ने धनुश तोड दिया, भयंकर ध्वनी से पुरा ब्रह्माण्ड गुंज उठा. सुर्य के घोडे मार्ग बदलकर चलने लगे, दिग्गज चिन्हाडने लगे, धरती दोलने लगी , शेश,वाराह और कच्छ्प कलमला उठे, प्रभु ने धनुष के दोनो टुकडे धरती पर डाल दिया, सारे देवता प्रभु की प्रशंशा करते है, और आशिर्वाद देते है,  तब लक्षमण जी राम को ऐसे देखते है जैसे चकोर क बचचा चन्द को देखता है,  तब शतानन्दजी ने ने आज्ञा दिया और सीताजी श्री राम के पास चली, सीताजी के मन मे संकोच और परम उत्साह है, समीप जाकर श्री राम जी की शोभा एखकर राजकुमारी सीताजी चित्र मे लिखी से रह गयी.

देवता फुल बरसाने लगे नगर मे बाजे बजने लगे हर तरफ खुशिय ही खुहिया मनाइ जाती है पृथ्वी अकाश और पाताल तिनो जगह खुशिया मनाइ जाती है और हर तरह यही बात हो रहा है की श्री राम ने धनुष तोड के सीता को अपना लिया. गौतम जी ई स्त्री अहिल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री राम का चरण स्पर्श नही करती, सखिया अहती है की चरण छुओ पर सीता डर से स्पर्श नही करती.

कुछ राजा लोग यह बात करते है की सीता जी को उठा लेते है और दोनो भाइयो को बान्ध देते है. अगर जनका साथ दे तो ब्याह भी हो जयेगा , ये बाते सुनकर कुछ अछे राजा बोले की अब तो शर्म करो एक धनुष तो उठा न्ही पाये और उन्हे ही जीतने की बात करते हो जिसने आ सिर्फ धनुष को उठाया बल्की एक हेरे बार मे ओ टुकडे कर दिये सोचो तुमलोगो का क्या हाल होगा.  इस तरह का कोलहल सुनकर सीता वहा चली गयी जहा उनकी माता थी,  और राम मन मे सीता जी का बडाए करते हुए गुरु जी के पास पहुचे, लक्ष्मण दुस्ट राजाओ की ऐसी बाते सुनकर क्रोध से कुछ बोलना चाह्ते है पर राम के डर से कुछ  बोल नही पाते है, खलबली देखकर सब हैरान है और उन दुश्ट राजाओ को गालिया दे रहे है,  उसी मौके पर धनुष का टुटना सुनकर परशुराम आ गये उन्हे देखते ही सारे राजा चुप हो गये, परशुराम का भयनक रुप देखके राजा डर कर रह गये और जिनके समने परशुराम जाते वे सब राजा डर कर डंडवत करते है और अपने पिता सहीत अपना नाम बोलते है, जिअकी तरफ उनकी नजर जाती है बस वह यही सोचता है की उसकी आयु पुरी हो गयी, फिर जनक जी ने आकर प्रडाम किया और सीता को बुलाकर प्रडाम कराया , गुरु विश्वामित्र जी ने राम और लक्ष्मण का परीचय कराया और बताया कि ये दोनो राजा दशरथ के पुत्र है, उनकी सुन्दर जोडी देखकर उन्होने आशिर्वाद दिया, फिर सब देखक्र जानते हुए भी परशुराम  ने पुछा की इतना भीड क्यु है ? और क्रोध से आग बबुला होने लगे, राजा जनक ने सब हाल कह सुनाया तब दुसरी तरफ धनुष के दोनो टुकडॆ दिखायी दिया देखते ही आग बबुला होकर उन्होने कहा जिसने भी तोडा हो उए जल्द मेरे सामने लाओ वर्ना लासो को ढेर लगा दुंगा, इतना गुस्से मे देखकर श्री राम ने कहा हे नाथ इस धनुष को तोडने वाला और कोइ नही बली आपका कोइ दास ही होगा, यह सुनकर वे और बौखला गये और बोले सेवकका काम होता है सेवा करना ना की दुश्मन का काम करना जिसने भी यह धनुष तोडा है वह मेरा दुसमन है, जिसने भी तोडा है वह जल्दी ही अलग हो जाये वरना सभी राजा मारे जायेंगे, यह सुनते ही लामण जी ने उनका अपमान करते हुए कहा हे गोसाइ ऐसे ऐसे कितने ही धनुहीया हमने लडकपन मे तोड दिया होगा,इस पर कुपित होकर परशुराम बोले अरे राजपुत्र काल के वश मे आकर बात न कर यह कोइ आम धनुहिया नही है यह विश्व विख्यात शिव जी का धनुष था, इस पर लक्ष्मण जी ने हस कर कहा हे नाथ हमारे लिये यह तो बस एक धनुहिया ही था, फिर यह तो छुते ही टुट गया इस पर अपना फर्शा सिधा करते हुए परशुराम ने अपना बखान करना सुरु किया वे बताने लगे के उन्होने कैसे क्षत्रियो का कितनी ही बार नाश करके ब्रह्मणो के हवाले पृथ्वी को किया है, फिर लक्षमण ना डरते हुए कहते है हे नाथ क्या आपने हमने छोटा बच्चा समझ रखा है जिसे छुते ही मर जाये, हे नाथ हमारे कुल मे ब्रह्मणो, गाय , देवता और भगवान के भक्तो पर विरता नही दिखाए जाते क़्यु कि इन्हे मारने पर पाप लगता है, इस्लिये अगर आप मारते है तो भी आपके पैर ही पडना चाहिये, आपका एक एक वचन ही हजारो वज्रो के सामान है, धनुष, बाण और फरशा आपने तो बेकार ही ले रखा है, इतना सुनते ही भृगुवंशी परशुराम क्रुध होकर कडे वचन बोले, हे विश्वामित्र सुनो यह बालक बहुत कुबुद्धी और कुटील है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है, अभी कुछ देर मे मरने वाला है, यदी इसे बचाना चाहते हो तो मेरा प्रताप, बल और क्रोध बताकर चुप कर दो, फिर लक्षमण बोले हे मुनी आपके रहते आपका यश का गुड्गन और कौन भला अच्छे से कर सकत है, आपने अपनी करनी अनेको बर अब तक तो बता दी है , इत्ने से संतोष न हुआ हो तो फिर से कह दिजिये, शुर्वीर तो लडाई मे तो लडाइ करते है अपने बारे मे नही बताते आप तो मानो काल ओ अपने बस मे रखे है जो बार बार मेरे लिये बुला रहे है, इतना सुनते ही परशुराम ने अपना फरसा सिधा किया, और बोले अ मेरा दोष म्त देना क़्यु की अब यह बालक मरने हि वाला है, फिर विश्वामित्र के आग्रह पर लक्ष्मण को प्रशुराम छोड देते है, परशुरम ने कहा कि हे विश्वामित्र आपके कहने मात्र से मै इस मुर्ख बालक को छोड दे रह हु इस पर मन ही मन विशवामीत्र मुस्कुरा कर बोले इन्हे हर जगह जीतने का इतना अशा चढा हुआ है की यी ये एक आम बालक और इन बालको मे फर्क भी नही कर पा रहे है, ईसी प्रकर बहस चलता रहा लक्षमण जी के कडुवे वचन सुनकर परशुराम फरशा लेकर आगे बढे तो पुरी सभा न हाय हाय करने लगा उधर श्री राम ने लक्षमण को रोक इशारे से रोक लिया लक्षमण ने कहा की मै आपको ब्रहमण समझकर छोड रहा हु, इस प्रकार के लक्षमण के वचन सुन कर और परशुराम का गुसा बढता देख राम ने बीच मे रोककर अपना बात रखा उन्होने कहा की हे नाथ बालक पर कृपा किजिये इस सीधे और दुध मुहे बच्चे पर क्रोधीत न होवे, यदी यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता तो आपका थोडा भी बुराइ नही करता, यदी अगर बालक अगर कुछ गलत भी करे तो बडे उसे माफ कर देते है, राम के वच सुनकर परशुराम कुछ चुप हो जाते है तब्तक लक्षमण फीर हस कर कहते है मनुष्य पाप के वश होकर अनुचीत कर्म करता है और औरो का नुकशान पहुचाता है इतना सुनते ही परशुराम को फिर गुसा आ जाता है और राम वे राम से कहते है तेरा भाइ बहुत ही कपटी है यह तेरी तरह आचरण करने वाला नही है , इसपर लक्षमण ने ने कहा हे मुनीराज मै आपका दास हु आप मुझ पर दया करे और क्रोध त्यागकर अब बैठ जाये अब खडे खडे आपका पैर दुख गया होगा, अगर आपको यह धनुष इतना ही प्यारा था तो किसी अच्छे कारीगर को बुलाकर जुडवा देते है जनकपुर के स्त्री और पुरुष थर थर काप रहे थे, लक्षमण जी का निडर वाणी सुन सब डर गये थे, तब श्री राम पर एह्सान कर कर परशुराम बोले हे राम मै तेरा भाइ समझकर इसे छोड रहा हु यह देखने बडा सुन्दर लेकीन हृदय से काला इंसान है, इतना सुनते ही लक्षमण फिर बोलना चाहते थे पर राम ने लक्ष्मण की तरफ देखा जैसे मानो वे लक्ष्मण को मना कर रहे हो, फिर लक्ष्मण चुपचाप वहा से गुरु विश्वामित्र के पास चले गये, फिर राम बोले हे नाथ आपक दोषी मै हु मुझे जो सजा देना है आप मुझे दिजिये मैने धनुष तोडा है, इस पर परशुराम बोले हे राम देख अभी भी तेरा भाइ तेढा ही देख रहा है यह मेरा शत्रु राजपुत्र है, इसे सायद यह नही पता मेरे नाम सुनते ही राजाओ के पत्नीयो के गर्भ गीर जाया करते है, मै इसे मार नही रहा बालक समझकर और ये अपनी निचता दिखाये जा रहा है, मेरा फरसा इसके गरदन पर चलने को उतारु है, मेरा हाथ चलता नही और क्रोध जाता नही समझ नही आ रहा क्या करु, तब परशुरम हठ कर बोले रे रा तु शिवजी क धनुष का तोडकर उलटा हमे ही सीखाता है, तेरा यह भाइ तेरी ही समती से कटु वचन बोलता है और तु छल से हाथ जोडकर खडा है, या तो मेरे साथ युध कर या राम कहलाना छोड दो,अरे शीवद्रोही छल करना छोड या मुझसे युध कर,नही तो मै दोनो भाई को मार डालुंगा, राम ने कहा अपना फरसा उठाईये और मेरी गर्दन पर वार कीजीये, स्वामी और सेवाक मे युध कैसा, लक्षमण आपका नाम तो जानता था पर आपको देखा ना था जिसकी वजह से यह गलती हुई, यदी आप मुनी की तरह आते तो यह गलती नही होती, अंजाने मे हुइ भुल को क्षमा कीजिये, हे नाथ आप अपना पैर दिजिये मै अपना माथा रखना चाहता हु, आपका नाम बडा परशुराम है और मेरा नाम कहा छोटा सीर्फ राम है, राम द्वारा बार मुनी जैसे समान जनक बाते सुनकर भी परशुराम कुपीत होकर बोले, तु भी अपने भाइ जैसा टेढा ही है, फीर राम ने कहा हे मुनी ऐसा कौन सा वीर है जिससे हम डरे और क्यु आखीर क्यु अगर रण मे देवता,दैत्य, राजा या कोइ और ही क्यु ना हो अगर कोइ हमे ललकारे तो हम अवश्वय ही उससे लडेंगे चाहे वह हम से कितना भी बलवान हो या बराबर ताकत वाला हि क्यु न हो, हम क्यु डरे किसि से, क्षत्रीय क शरीर रखकर भी अगर कोइ डर गया तो फिर क्षत्रीय कहा है , अगर कोइ डर गया तो उसने कुल का नाम भी डुबा दीया, राम की बाते सुनकर परशुराम को होश आया उन्होने कहा हे राम आप धन्य है आप दोनो भाई राक्षसो का सन्हार करने वाले है आपकी जय हो , यह कह कर परशुराम जंगल मे तप करने चले गये, तब देवताओ ने नगाडे बजाना सुरु किया और आकाश से फुलो की वर्षा की, यह सब देख कर कुटील राजा वहा से भागने मे ही अपना भालाई समझे ,जनक बहुत खुश थे तुरंत ही अयोध्या दुतो को भेजा गया और जनक ने पुरे नगर को सजाने का आदेश दिया, नाना प्रकार से नगर को सजाया गया कही कुछ कमी ना था, उधर दुत अयोध्या पहुचे नगर को देखकर खुश हुये राज दरबार पहुचकर राजाको चिठी दी राजा ने चीठी पढा तो आखो से पानी आने लगा तबतक भरत और शत्रुध्न भी आ गये उन्होने भी पुछ लिया की कहेये पिताजी भैया कैसे है, तो दशरथ जी ने एक बार फिर पढा सुनकर दोनो भाइ बहुत खुश हुये, राजा ने बार कुशलता पुछा और पुछा की तुम दोनो ने देखा उन्हे राजा जनक ने कैसे पहचाना उन्हे तो उन्होने उतर दिया उन्हे भला कौन नही पहचान सकता दोनो पुत्र महान और तिनो लोको को जितने वले है भला उन्हे कौन नही पहचान सकता दुतो ने पुरी कहानी सुनाई तो राजा प्रेम मे मगन होकर पुरी कहानी सुने जा रहे थे, फिर राजा उठे और अपने गुरु वशिश्ठ को पत्रीका दिया और कहानी उन्हे सुनाया, पुरी कहानी सुनने के बाद गुरु अत्यंत खुश हुये, और कहा राजन जल्दी चलने की तैयारी करो यह सुनकर राजा ने शिर नवाया और दुतो को रहने का व्यवश्था कर राज महल चले जाकर सब रानीयो लो पुरी कहानी सुनाई सब रानीया सुनकर बहुत खुश थी राजा बार बार पत्रीका और चीठी पढ्कर रानीयो को सुनाते है उस अति प्रिय पत्रीका को सब लेके अपने छाती से लगाती है और खुशी के आसु रोती है दशरथ जी नी बार बार अपने बेटो का कहानी कह रहे अथे और बोल रहे थे यह सब मुनी का कृपा है, राजा तो बाहर चले गये रानीयो ने गरीबो और भिक्षुको को बुलाकर बहुत सारा धन न्योछावर किया अयोध्या मे नगाडे बजने लगे हर तरफ खुशीया मनाई जाने लगी सभी लोको मे यह समाचार फैल गया की अब श्री राम और सीता का विवाह होगा,हर तरफ स्त्रीया गीत गाने लगी राजाने भरत को बुलाया और कहा जओ हाथी घोडे साजाओ राम का बारात ले चलना है यह सुनकार दोनो भाइ बहुत खुश हुये और तैयारीया करने लगे भरत जी ने घोडा और हाथीयो को साजाने का आदेश दिया रथ सजाये गये सब अति प्रीय लग रहे थे हर तरफ हाथीयो का चिलाना और घोडो का हिनहिनाना ही सुनाइ दे रहा था लाखो करोडो की संख्या मे सेवक चले , फिर पहले गुरु वशिश्ठ को रथ पर बैठा कर फिर अपने रथ पर जा कर बैठे और बारात लेकर चले इतना मंनोहर बारात देखकर देवता लोग भी आकाश भी फुल बरसाने लगे बारात इतना सजा था की उसका वर्णन नही हो सकता राजा दशरथ का सुनकर जनक ने नदीयो पर पुल बन्धवा दीये, सारे शुभ लगन और शकुन और नक्षत्र एक हो गये मानो सब कुछ सही सही ही होने वाला हो, इधर बारातीयो के लिये नाना प्रकार के व्यंजन और रहने की व्यवश्था की गयी सीता जी ने सब सिधेयो को स्मरण करके बुलाया और राजा दशरथ की सेवा करने के लिये भेज दिया सीता जी का आज्ञा सुनकर सारी सिधिया जहा लोग ठहर रहे थे वहा जा कर सारे भोग विलास की वस्तुये ले गयी बाराते अत्यंत खुश थे राम ने जब यह सीता क प्यार देखा तो वे बहु खुश हुए, इधर राम और लक्षमण ने जब सुना के पिताजी आये हुए है तो उनसे मिलने को आतुर हो गये लेकीन गुरु के आज्ञा के बगैर कैसे जाये यह सोचकर दोनो चुप बैठे थे , फिए गुरु को जब इस बात का पता चला तो वे दोनो भाइयो को गले लगा लिया और राजा के पास जने की इजाजत दे डाली दशरथ जी ने जब दोनो भाइयो को देखा तो वे फुले नही समा रहे थे दोनो भाइयो को गले लगाकर उन्होने बहुत आशिर्वाद दिया.

पुत्रो समेत दशरथ को देखकर सभी खुश हो रहे है, बारात लगन के दिन से पहले ही पहुच गया था जिसकी वजह से और भी ज्यादा जनकपुर अछा लग रहा था, औरते गीत गाना सुरु करती है, जनकजी स्नेह्वश बार बार सीताजी को गले लगा रहे हैI

उधर जनकपुर के निवासी भरत और श्त्रुध्न को देखकर और खुश होते है तरह तरह से उनकी भी सुन्दरता की बाडाई होने लगती है, कुछ दिनो पश्चात वह लगन का दिन आ गया जिसका सब को इंतेजार था ब्रह्मा जी ने उनके शादीया को लग्न पत्री बनाकर जनकपुर मे भेजा, हालाकी उस से भी पहले जनकपुर के ज्योतिषियो ने वही दिन नीकाल रखा था जिसकी वजह से उनकी भी बहुत प्रतिष्ठा बढ जाती है और उनकई तुलना भी ब्रह्मा के समान किया जाने लगा, देवतागण अपने विमानो को सजा सजाकर निकल पडॆ जब वे जनकपुरी पहुचे तो वहा का वैभव देखकर चकीत रह गये, तब शिवजी ने समझया की मत भुलो यह श्री राम और सीता का विवाह है, सारे देवतागण अपनी नेत्रो से देख देख कर खुश हो रहे है सारी स्त्रीया तैयार होकर पराछन को चली अनेक प्रकार के बाजे बज रहे है पार्वती, ल्क्ष्मीजी, सरस्वती, ईन्द्राणी आदि देविया सुन्दर स्त्रीयो का रुप धारण कर के आम औरतो मे जा मिली और उन्हे कोइ पहचान भी नही पाया

सीता जी देखने मे इतना सुन्दर लग रही थी मानो दुनीया मे कोइ और सुन्दर ही ना रहा हो, देवता प्रणाम कर फुल बरसा रहे है, सीताजी ऐसे सज धजकर मंडप मे आयी जैसे कोइ देवी आ गयी है, सारे मुनियो ने वेद पढना सुरु किया और सुरु हुआ राम और सीता जी का विवाह जनक जी वशिश्ठ जी का आज्ञा पाकर अपनी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से श्रुतकीर्ति क विवाह श्त्रुधन से और कुश्ध्वज की बडी कन्या मांडवी से भरत जी का विवाह भी हो गया, सब पुत्रो और बहुओ को देखकर ऐसे खुश हो रहे थे मानो उन्हे सब कुछ मिल गया दहेज रेशमी कपडे सोंने चान्दी हीरे आदि दहेज मे दिये गये जिसे खुशी से दशरथ ने ग्रहण किया, उन्होने वे सारे सामान यचको को दे दिया, बचा वो सब जनवासे मे भेजवा दिया सीता जी बार बार राम जी को देखती है और सकुचा जाती, फिर स्त्रिया चारो कुवरो और कुवारीयो को कोहबर मे लिवा गयी

चारो पुत्र बहुओ के साथ पिता दशरथ के सामने आये, तो दशरथ बहुत खुश हुये, फिर राम सहीत तीनो भाइयो का चरण जनकजी ने धोया, उधर बारातियो के लिये नना प्रकार का भोजन बन रहा था, एक लाख काम धेनु जैसे सुन्दर गाये सोने और चान्दी से सजाकर ब्रह्मणो को दिये जा रहे थे इस प्रकार बहुत दिन बीत गये तब दशरथ ने आज्ञा मंगा तो जनक जी ने हा मे सिर नवा दिया, जनक जी ने मंत्रीयो को बुला दिया और कहा की जओ रानीयो को खबर दो बारात जाने वाली है, दहेज के रुप मे अनगिनीत बैलो पर ला लाद कर ले जया गया, पुरे जनक वासी यह सुनकर की बारत जाने वाली है सुनकर जनकपुर वाले बहुत निराश हुए, दस हजार हाथियो को साजाकर गाडियो से दान दहेज भरकर कर भेजा गया,राजा दशरथजी ने प्रेम पुर्वक सब को लेके अयोध्या चलते है, डंका बजाकर बारात चली सारे नगर वासी अपने नेत्रो मे सब को समा लेना चाहते है.

अब नगर मे प्रवेश का समय आ गया राजा दशरथ जी ने गणेश जी का स्मरण किया और नगर मे प्रवेश किया, बहुत से बाजे बजने लगे, स्त्रिया आरती करती है बारात राजा के दरवाजे पर आती है, अब चारो रानीया आकर परछ्न करना सुरु करती है, और बार बार आरती करती है, बहुओ सहित पुत्रो को देखकर माता ऐसे खुश हो रही थी मानो जैसे पहले बार उन्होने अपने पुत्रो को देखा है,देवता लोग आकाश से आशिर्वाद दे रहे थे, ब्राह्मणो का भीड इकठा हो गया जिसे देखकर रानीयो ने उठकर उन्होने उंलोगो को नहलाया और भोजन करवया  उसके बाद उन्हे सारा भेट देकर भेजा. फिर राजा रानीवास आकर बहुओ समेत बचचो को सोद मे बैठाया जिसे देख के वहा मौजुद सब खुश हो जाते है, पुत्रो समेत राजा ने स्नान करके ब्रह्मणो, कुटुम्बियो, और गुरु को बुलाकर खाना खाते है, श्री राम से सब मिलकर सब अपने अपने घर को चले, राजा ने सब को प्रेमपुर्वक विदा किया और रानियो को बुला कर कहा की अभी बहुए पराये घर से आयी है है इनका सब प्रकार से देखभाल करना और पलको पर बैठा कर रखना, कहकर राजा अपने शयन कक्ष मे सोने जाते है , इधर चारो भाइ निद्रा के वश मे है जिन्हे माताये जगाती है और जगाकर सोने जाने को कहती है राम उठते है और उठकर तिनो भाइयो को भी आज्ञा देते है अपने शयन कक्ष मे जाकर सोने को, माताये बार राम को देखती है और उनसे पुछती है की हे राम आप तो इतने कोमल और सुकुमार फिर आपने इतने खतार्नाक राक्षसो को कैसे मारा शिवजी की धनुष को कैसे तोण दिया ये सारे कार्य तो मनुष्य के है ही नही हे राम हम सब धन्य हुइ तुम्हारा दर्शन कर के, फिर राम ने अपने आप को निद्रा के वश करके सो गये और सारी माताये अपनी बहुओ को लेके सो गयी सुबह हुआ चारो भाइ नित्य क्रिया से निव्रित होकर सरयु मे स्नान कर राजा के पास आये तो राजा ने प्रेमपुर्वक सबको गले लगाया, ऐसे ही बहुत दिन बितने पर गुरु विश्वामित्र आज्ञा मंगकर विदा लेते है और चलने को तैयार होते है तब सब उनके चरणो पर गिर पडते है और राजा उनसे आग्रह करते है के हे मुनि यह सब राज्य आपका हि है आप इन बच्चो पर अपना स्नेह हमेसा बनाये रहना और मुझे भी अपना दर्शन देते रहना, इतना कहकर उन्हे विदा किया

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