Friday, 1 April 2016

राम वनवास

जब से श्री राम विवाह करके अयोध्या आये तब से सब कुछ अछा हो रहा था और सब कुछ ठिक ठाक चल रहा था, सब यही चाहने लगे की महाराज जल्द से जल्द राम को गद्दी सौप दे, एक दिन रघुकुल के राजा अपने रज्यसभा मे सभी सभाजनो के साथ बैठे थे ऐसे ही एक दर्पण लेकर अपना चेहरा देखा तो उन्हे अपने पके हुए बाल दिखाइ दे गये, तो उनके मन मे आया की क्यु ना अब राम को गद्दी दे दी जाये, मन ये बात विचार कर राजा ने गुरु वशिश्ठ को बुलाया और अपने मन का बात बताया तो मुनी प्रसस्न होकर बोले राजन आप जो बोल रहे है वह अत्यंत ही सहे है, यह अत्यंत खुशी का बात है, मुनी ने कहा हे राजन अब देर ना किजिये जल्द जल्द से जल्द तैयारी प्ररम्भ किजिये और राम को राजा बानाइयेI


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राजा खुश होकर महल आये और खुश होकर सब को बताया मंत्रियो ने ने कहा हे नाथ जल्द से जल्द इस कार्य को करना उचित है, राजा ने तुरंत ही सब तिर्थो का जल मंगवाया बाजार को तुरंत सजाने का आदेश दिया, श्री राम का राज्यभिषेक का खबर पाते ही नगर मे हर्ष होने लगा सब लोग खुशिया मनाने लगे हर तरफ खुशहाली ही खुशहाली व्याप्त हो गया हर तरफ बाज़ा बज़ने लगा, सब एक दुसरे को बधाइ देने लगे, पुरे नगर को सजया जाने लगा, माता कौशल्या ने नाग, ग्राम देवी देवताओ का पुजा करती है, राजाने वशिश्ठ मुनी को बुलवया और राज महल श्री राम को शिक्षा देने के लिये भेजा, गुरु का आगमन सुनकर राम दरवाजे पर आकर शिस नवाते है अन्दर लाकर सीता सहित उनके पैर छुते है और कहते है की हे नाथ आपने आने का कष्ट क्यु किया आपने मुझे बुला लिया होता, ये सुन कर मुनी ने कहा हे राम राजा ने आपकी राज्याभिषेक की तैयारी की है अतः आज आप उपवास करे और सब तरह से सन्यम किजिये, यह सुनते ही राम्के मन मे दुख होता है की सब भाइ एक साथ जन्मे एक साथ खेले और एक साथ विवाह हुआ फिर भी मेरा ही राज्याभीषेक क्यु हो रहा हैI

इधर सारे देवतागण आकर माता सरस्वती से विनती करते है और कहते हि की हे माता राम को वन भेजिये ताकी इस द्दुनिया का जल्द उधार हो सके, माता बडे सोच मे पड जाती है की ऐसी असुभ कार्य मुझसे क्यु करवाया जा रहा है, लेकिन देवताओ का आग्रह और पृथ्वी का कल्याण समझकर माता तैयार हो जाती है,मंथरा नाम की केकैइ की दासी थी जिसकी बुद्धी घुमाकर माता चली गयी, मंथरा मन्दबुद्धी थी, वह भरत के माता के पास गयी और केकैइ की बार बार पुछने पर भी कुछ नही बोलती है और जला सा मुह करके खडी रहती है, यह देखकर रानी डर जाते है और कहती है की तु कुछ बोलते क्यु नही चारो भाइ कुशल तो है, इस पर बोलती है की राम्को छोड्कर और किसका कुशल है, राम राजा बनने वाले है आज जाकर कौसल्या देखो कितना खुश है और तुम्हारा भरत परदेश है, जानती हो जी स्वामी तुम्हारे वश मे है, मन्थरा के ये बात सुनकर रानी उसे डाटती है और कहती है की अब चुप होजा पागल कही की, फिर ऐसा कहा तो तेरा जीभ निकलवा दुंगी, मंथरा तुम्हारे कहने से मुझे दुख नही है मै तुझे बताती हु देख बडा भाइ स्वामी और छोटा भाइ सेवक होता है, तुझे जो अच्छा लगे मांगले तुझे मिलेगा यह सुभ अवसर बार बार नही आती, छल कपट छोड और अछी बाते कर तो मंथरा कहती है जो देखा वो मैने कह दिया रानी मैने अब क्या बार बार मै यही कहती रही लेकीन हे रानी मैने जो कहा सही कहा है आप एक बार विचार करके देखिये की मैने क्या गलत कहा, मेरा बात ही जलाने योग्य है हे रानी मैने कुछ गलत नही कहा लेकीन हे देवी गलत समझकर मुझे माफ कर दो, आप ही देखलो राम की माता कितनी चतुर है समय मिलते ही अओअना काम बना लिया और राम को राजा बना दिया आप ठहरी सिधी आप से ये काम होने वला कहा, केकैइ उसकी कडवी बाते सुनकर डर गयी और कुछ ना बोली फिर कपट के हजारो कहानी सुनाकर रानी को बहलाती है, फिर केकैइ ने कहा देख तेरी बात सही है मै प्रतिदिन रात को डरावने सपने देखा करती हु, मै जिते जी अपना जीवन अपने माइके जाकर काट लुंगी लेकीन कौशल्या की चाकरी नही करुंगी, मैने भी ज्योतिषीयो से पुछा तो उन्होने कहा की भरत ही राजा बनेंग, कुबरी ने सब प्रकार से कबुल करवाया कुबरीने याद दिलवाया की तुम्हारे दो वरदान अभी सुरक्षीत है आज उन्हे राजा से मांगकर अपना छाती ठंडा करो, अपने पुत्र को राज्य और राम को वनावास दो, उसने यह भी बोला की जब राजा राम का सौगन्ध खा ले तो अपनी बात कहना ताकी राजा अपनी बात ना टाल पाये क्यु की आज रात बीत जाने के बीत जाने के बाद कल कुछ नही होगा, मेरी बात को दिल से समझना, मंथरा ने जल्दी से दिमाग दिया की अभी कोप भवन मे जाओ और सब काम सही से करना, केकैइ ने कहा अगर मेरी मनोरथ पुरी हो गयी तो तुम मेरी आखो की पुतली बन जओगी यह कहकर वे कोपभवन मे चली गयीI

सन्ध्या के समय राजा केकैइ के भवन मे बडॆ खुश होकर जाते है, तब उन्हे ज्ञात हुआ की केकैइ कोप भवन मे है ये जानते ही राजा डर गये, राजा डरते हुए कोप भवन गये वहा जकर देखा की केकैइ बेजान धरती पडी है सारे गहनो को निकाल फेका है और कुछ बोल भी नही रही है, राजा जाकर प्रेम से केकैइ को छुते है  लेकीन गुसे से छुने नही देती है और अपना मुह घुमा लेती है , फिर राजा समझाते है की आज सारा रज्य खुशी मना रहा है और आप यहा कोप भवन मे पडी है आप को तो खुश होना चाहिये पर मुझे समझ नही आता आप यहा और ऐसे कैसे चली आयी, पर रानी कुछ बोलती नही है चुपचाप वैसे ही पडी रहती है, राजा के लाख मनाने पर भी केकैइ कुछ नही बोलती है, राजा के बहुत गिडगिडाने पर केकैइ बोली की हे राजा आपने मुझे दो वर मांगने को कहा था, याद है तो कहो, राजा ने कहा की हम जान दे सकते है पर बोले हुए से कभी नही हट सकते यही रघुकुल की रीत है, फिर भी रानी कुछ नही कहती और कहती है बस यही कह्ती की रहने दो आप नही दोगे फिर परेसान होके राजा कहते है कि मै राम का कसम खाके कहता हु तुम एक बार बस कहो मै जान दे दुंगा लेकिन वचन नही खाली जाने दुंगा, तुम अपना वचन मांगो राज के बहुत कहने पर रानी ने कहा की सुनो पह्ला वचन है कल सुबह राम का नही भरत का राज्याभिषेक होगा और दुसरा कल सुबह राम चौदह वर्षो के लिये योगी के भेष मे वन मे जायेंगे इतना सुनते ही राजा के छाती मे जलन हुआ और राजा वही धरती पर बैठ गये और कहा रानी पहला तो कल ही मै बहुत को दुत भेज कर बुला कर उनका राज्याभिषेक करा दुंगा पर रानी ने एक ना माना और बस अपने बात पर अडी रही राजा ने रात भर रानी को समझाया पर रानी ने एक ना माना राजा रात भर रोते रहे पर रनी के उपर कोइ असर नही हुआ रानी ने अपना मांग जारी रखाI

सुबह हुआ दिखे पर राजा नही दिखे तब सबको आश्चर्य हुआ की रोज सुबह होने से पहले ही राजा उठ जाते है पर आज नही क्या बात है उधर राम को युवराज बनाने की पुरी तैयारी चल रही थी, तब मंत्री को भेजा जाता है की जाकर देखे और रजा को लिवा लावे मंत्री जाते है तो देखकर दंग रह जाते है राजा बेहोश धरती पर पडे है और केकैइ वहा पर बैठी है, मंत्री ने पुछा की राजा को क्या हुआ और निचे क्यु पडे है, तो कहती है के बस कुछ नही हमे कुछ नही पता बस राम को ही बुलाते है जओ जाकर राम को बुला लाओ मुझे कुछ नही पता नही है, मंत्री चुपचाप वहा से निकलते है यह सोचते हुए की यह सब रानी का ही चाल है, जब दर्वाजे पर जाते है सब लोग पुछते है कहा है राजा तो सब समझाकर वे राम के पास जाते है और उन्हे बुलाते है राम उनके पिछे पिछे चले जाते है, राम अन्दर जाके उनसे पुछते है की हे माते क्या हुआ पर वो कुछ कहती नही है फिर राजा को देखते है राजा बेहोस पडे है फिर आग्रह करने पर वे बताती है कि कुछ नही बस मैने भरत के लिये राज्याभिषेक और आपके लिये वनवास मंग लिया बस इस लिये बेहोस पडे है, अगर नही दे सकते तो मना कर दे इस तरह गिरने की क्या बात है, अगर वचन नही रख सकते तो ना रखे, इतना वचन सुनकर राम ने कहा नही माता आपका दोनो वचन पुरा होगा भरत युवराज बनेंगे और मै वन भी जाउंगा, बहुत कम ही पुत्रो को ऐसा अवसर प्राप्त होता है की वे माता और पिता का कहना माने, तब तक राजा राम राम कहते हुए करवट बदलते है तो राम को चरण छुते हुए देखा, राजा ने राम को तुरंत ही गले लगाया और मना करते है की राम वन मत जाओ, ब्रह्मा और शंकर जी से प्रार्थना कर रहे है की भगवान कैसे भी रामको रोक लो, राम वहा से आज्ञा लेकर चले अपनी माता का आज्ञा लेने चले, यह बात राज्य मे जंगल की आग की तरह फैल गयी सब केकैइ को कोसने लगे,कोइ कहता की यह झुठ है, कोइ कहता है की इसमे भरत का हाथ है, राम जाकर माता का पैर छुकर आज्ञा लेते है माता रोती है और बार बार राम्का मुख देखती है और चुमती है, तब राम कहते है हे माता पिता ने म्झे वन का राज्य दिया है जहा मेरा बहुत कार्य है तु प्रसन मन से मुझे विदा दे, और तु कभी डरना मत मेरे साथ सब कुछ अछा होगा, पर माता कुछ कह नही पाती और चुप रहती है वो सोचती है की अगर रोकती हु तो धर्म का हानी होगा और जाने की आज्ञा देती हु तो बहुत अधिक हानी होगा फिर इस फुल जैसी सीता का क्या होगा क्या ये भी राम के साथ जायेंगी फिर सभी प्रकार से विचार कर के पती धर्म को अपनाते हुए जाने का आज्ञा  देती है, पर सीता को कहती है की तुम यही रहो पर उनके हठ के आगे वे कुछ नही कर पाती राम से बताते है की हे राम सीता भी तुम्हारे साथ जाना चाहती है फिर राम ने बहुत प्रकार से सीता को समझाया की आप यहा रह्कर सास और ससुर का सेवा किजिये पर सीता कुछ न कहती है बस चुप चाप धरती को देखती है तब श्री राम ने कहा हे प्रिये जओ तुरंत वन जाने कि तैयारी करो, सीता तुरंत तैयार होके आती है, और रामके साथ चलने को, जब ये बात बात लक्षमण को पता चलता है तो वे आकर रास्ते पर आकर शिश नवाकर खडे हो जाते है और ये सोचते है की पता नही भैया मुझे अपने साथले जायेंगे या नही, रामुन्हे देखते ही कह्ते है हे लक्षमण तुम जओ अभी पिता और प्रजा की सेवा करो अभी पिता का वृधावस्था है और माताओ का सेवा करो अभी तो यहा पर भरथ और शत्रुध्न भी नहि है अतः तुम्ही हो जो राज्य की देखभाल करने वाले हो, यह सुनकर लक्षमण ने कहा हे प्रभु आप ही मेरे सबकुछ है, मा है पिता है भाइ है सबकुछ आप हि है आप मुझे अपने साथ ले चले, यह जवाब सुनकर राम ने कहा जओ माता से आशिर्वाद लेकर तुरंत आओ यह सुनते हि लक्षमण माता के पास गये और पुरी बात कह सुनाइ माताको जान कर बहुत दुख हुआ, पर माता ने देखा की राम के साथ लक्षँमण का जाना ही उचीत है तो उन्होने लक्षमण को सब प्रकार की शिक्षाये दी और कहा तुम रोज वही कार्य करना जिससे राम्को सीता को सब प्रकार से खुशी हो इस प्रकार शिक्षा देकर माता ने आदेश दिया जाने के लिये, इतना सुनते ही लक्षमण तुरंत माता को सिस नवाकर वहा से निकले ताकी कोइ और बाधा ना आ जाये, और जाकर माता सीता और  भाइ से I

श्री राम चन्द्र जी पधारे है ऐसा कहकर मंत्री ने राजा दशरथ को उठाया, राजा दोनो पुत्रो और सीता को देखकर व्याकुल हो जाते है, तब राजा ने दोनो पुत्रो को गले लगाया और अपनी सभी तरह की चतुराई लगाया ताकी राम रुक जाये और वन ना जाये लेकीन भगवान ने तुरंत ही अपना सिर नवा कर आशिर्वाद उर आदेश मांगा पर स्नेह वश राजा कुछ बोल नही पाते, मंत्री सुमंत्र की पत्नी और गुरु वशिष्ठ की पत्नी दोनो सीता जी को समझाती है और कहती है की राजा ने तुम्हे वनवास नही दिया है तुम रुक जओ, युम मत जाओ पर सीता जी का ध्यान तो सिर्फ राम के चरणो मे ही था, शर्म से सीता जी कुछ उतर नही देती, राजा फिर मुर्छीत हो गये, राम ने वन का सारा सामान भाइ और सीता जी को साथ लेकर गुरु का आशीर्वाद लेकर निकल पडॆ, राम्ने सारे दस दासियो को बुलाकर उन्हे गुरु के हवाले करते हुये कहा की आप सब इनकी देखरेख माता पिता की तरह करे तो मुझे बहुत खुशी होगी, राम जाने से पह्ले से पह्ले सबसे हाथ जोड्कर यही विनती करते है की आप सब वही कार्य करे जिससे राजा को हर तरह से खुसी मिले, इस प्रकार राम जी ने सबको समझया और खुश होकर सबसे आशीर्वाद लेकर चलते है, राजमहल से निकलते ही सारे देवता लोग खुशी मनाते है, ये सोच के देवता लोग खुशी मनाते है की अब रावण का बुरे दिन ज्ल्द ही आने वाले है, श्री राम वन जा रहे है ये सोच कर सब अयोध्यावासी बुढो और बचो को घर छोडकर उनके साथ हो लिये, पहले दिन श्री राम जी ने तमसा नदी पर निवास किया और अयोध्या के लोगो के समझाना सुरु किया लेकिन वहा कोइ मनने वाला ना था यह देखकर रामको बहुत दुख हुआ, आधी रात को मंत्री को राम ने कहा की ऐसे रथ को हाकिये जैसे किसी को यह ना पता चल पाये की हम किस दिशा मे गये, सुबह हुआ राम ना पकर सब दुखी हुए पर अयोध्या लौटना ही पडा इसके अलावा और कोइ रास्ता भी ना था, भगवान गंगा नदी के किनारे पहुचे तो उतरकर कर दंडवत किया, तत्पश्चात लक्षमण और मंत्री ने भी गंगा जी को प्रणाम किया उसके बाद और मात सीता जी ने भी रथ से उतरकर गंगा से प्रणाम किया और सबने गंगा मे स्नान किया जिससे सब थकावट दुर हुआI

Lord-Shri-Ram-with-Sita-mata-and-Laxman-HD-Wallpaperराम वहा रुके हुए है यह सुनते ही निशादराज अपने सगे सम्बन्धियो के साथ वहा आ पहुचे और राम को अपने गाव शृंग्वेरपुर चल्कर रहने का निमंत्रण दिया, राम्ने यह् कह कर मना कर दिया की पिता का आज्ञा कुछ और ही है, तब निशदराज ने मन मे सोचकर अशोक के पेड को आराम करंने के लिये उचित समझा उसने सबको साथ लेजाकर वह स्थान भी दिखाया, रात को सीताजी, सुमन्त्रजी और लक्षमण सहीत कन्द मुल खाकर वही लेट गये, लक्षमण जी ने सबके सोते हुए जानकर तिर धनुष सजा कर रखवाली करने लगे, तब निसादराज ने अपने विस्वासपात्रो को तिर धनुष के साथ नियुक्त कर दिया जिससे कोइ दिकत ना आवे और खुद जाके लक्षमण के पास बैठ गया, उसने सोते वक्त राम और सीता जी को देखा तो नही गया तो उसने लक्षमण से कहा कि देखो केकैराज की निच केकैई ने राजमहल के फुलो को आज जंगल मे सोने को मजबुर कर दिया ऐसी निच स्त्री कही देखने को नही मिलती, तब लक्षमण ने प्रेमपुर्वक कहा की हे भाइ कोइ किसी को वन नही भेजता नाही किसि को परेसान करता है ये तो बस करनी का फल ल्है और अपने ही कर्मो का लीला है, ऐसा विचारकर किसी को दोस नही देना चाहिये और नाही क्रोध करना चाहिये यह सब व्यर्थ है, इसी प्रकार समझाते हुए सुबह हो गया, सब नित्य क्रिया करके और स्नान करके भगवान ने बड का दुध मंगाया और उससे अपना अपना और लक्षमण का जटा बनाने लगे जिसे देखकर मंत्री के आखो मे आसु आ गया, और रोते हुए उन्होने कहा हे नाथ मुझे राजा दशरथ ने यह आज्ञा दिया था की मै आपसबको वन दिखाकर और गंगा स्नान कराकर सब संकोचो को दुर करके अपको वापस अयोध्या ले जाउ, लेकीन हे प्रभु जैसा आप कहे मै वैसा ही करु,फिर राम ने सहज ही मंत्री को समझाया और कहने लगे की सत्य के समान और कोइ सुख नही ननाही कोइ धर्म है, आप जाकर पिताजी के चरण पकडकर विनती करीयेगा और कहियेगा की मुझे कोइ दुख नही होगा फिर उनहोने कहा तुम लौट जाओ फिर उन्होने सीता जी की दुहाइ दी और कहा की हे राम आप लौट चले इस पर सीता जी ने कहा की मै राजा जनक की पुत्री हु और अयोध्या नरेश की बहु जिसके प्रताप से इन्द्र भी अपना आधा सिंघासन देता है और मेरे साथ तो मेरे प्राणनाथ भी है लक्षमण जैसे देवर भी है, यह सुनते ही मंत्री चुप हो गये और कुछ कह ना पाये, तब राम ने कहा की आप लौट जाये, उसके बाद मंत्री ने श्री राम के सामने सिस झुकाया और अपना रथ घुमाकर चल पडे, उसके बाद भगवान ने केवट को बुलाकर गंगा नदी पार करने के लिये नाव मंगाने लगे तब केवट ने प्रभु केर चरणो मे अपना सिस नवाकर कहा मै अपना नाव नही दुंगा आपको क्युकि मुझे पता है आपके पैर के स्पर्ष पत्थ्र भी मुनी की पत्नी बन गयी ये तो फिर भी लकडी ही है क्या पता यह भी मुनी की पत्नी भी बन गया तो अपने परीवार का भरण पोषण कैसे करुंगा यह एकमात्र नाव है जिससे मेरा काम चलता है, फीर केवट बोला हा अगर आप अपना चरण धोने दे तो मै आपको गंगा पार करा दुंगा, ये सुन के भगवान बोले देख भाइ जो तुझे अछा लगे तु कर दे लेकिन जल्द से जल्द गंगा पार करादे, ये वचन सुनते ही केवट जल्द ही एक कठौता लाया और और उसमे प्रभु का पैर धोया और फिर परिवार सहित उसे पिया और तुरंत ही गंगा नदी पार   कराया, निषादराज लक्षमण और सीता जी के साथ प्रभु गंगा किनारे बालु मे उतरे उतरते ही केवट दंडवत करने लगा जिसे देख के भगवान को संकोच हुआ कि इसको कुछ नही दिया, तुरंत सीता जी ने यह समझ लिया और अपना रत्न जडीत अंगुठी उतार कर उसे देने लगी पर वह कहा मानंव वाला था उसने कहा आज मुझे क्या नही मिला सब्के आग्रह करने पर भी वह कुछ नही लेता है तब भगवान ने उसे निरमल भक्ती का वर्दान देकर विदा किया I

फिर भगवान राम ने नहा के शिवजी का पारथिव पुजा किया और सिव जी का अराधंना किया, और माता सिता ने हाथ जोडकर गंगा जी से विनती विनती किया की हे माता मेरा मनोरथ पुरा किजियेगा ताकी मै पती और देवर के साथ के साथ वापस आ कर आपकी पुजा कर पाउ, ये देख कर माता गंगा ने जल के अन्दर से कहती है तुम्हारा प्रभाव तो सारा जग जानता है सिद्धिया भी तुम्हारी सेवा करती है और तुम हो की मुझसे आ कर  प्रार्थना कर रहीहो यह तो तुम्हारी बडपन है, लेकीन मै फिर भी तुम्ही आशीर्वाद दे रही हु की तुम अपने प्राणनाथ और देवर के साथ कुशल पुर्वक अयोध्या लौटोगी ये वचन सुनके सीता जी खुश हुइ, तब श्री राम जी ने निषादराज गुहा को भी कहा तुम भी अब अपने घर जाओ, यह सुनते ही गुहा दुखी हो गया, और उसने विनती करते हुए कहा की हे राम मै आपके साथ चार दिन रहके आपकी सेवा करना चाहता हु जहा आप रहेंगे वहा कुटिया बनाउंगा हे राम आप मुझे अपने साथ रहने दे, उसे राम ने अपने साथ रहने दिया, उस दिन पेड के निचे रहना हुआ साथी निषादराज और भाइ लक्षमण ने मिलकर व्यस्था किया, सुबह उठकर तिर्थो के राजा प्रयाग के दर्शन किया, तब प्रभु श्री राम मुनिश्वर भारद्वाज के पास गये और दन्डवत करके प्रणाम किया मुनी श्री राम को देखते ही खुश हुए और उन्हे गले लगा लिया, उसके उपरांत कन्द मुल फल फुल इत्यादि लाकर दिया, राम लक्षमन का आगमन सुनकर पुरे प्रायाग के लोग उनके दर्शन को आगये, श्री राम जी ने सबको प्रणाम किया, श्री राम जी ने रात को वही पर विश्राम किया , सुबह होते हि श्री राम अपने दोस्त गुहा, भाइ और सिता जी के साथ वहा से आगे के लिये निकले मुनि भार्द्वाज ने उनके साथ अपने प्रिय चार शिष्यो को भी भेजा कुछ दुर जाने के बाद श्री राम ने उन्हे भी वपस भेज दिया, यमुना जी को पर करके सबने यमुना जी मे स्नान किया यमुना जी के किनारे पर रहने वाले लोग उनका आगमन सुनके डौडकर उनके दर्शन को आये और उनकादर्शन पाकर धन्य हुये कुछ दुर चलने के उपरांत श्री राम जी सखा गुहा को जाने के लिये समझाते है तो गुहा जाने को तैयार होते है, उसके बाद सिता जी , श्री रामजी और लक्षमण जी ने फिर यमुना जी को प्रणाम किया और आगे को चाले रास्ते मे अनेक यात्री साथ चलने को आज्ञा मांगते है श्री राम के समझाने पर नही जाते, कोइ दौडकर घडा मे पानी भर कर लाता है तो कोइ पेड के निचे घास बिच्छा कर उन्हे एक पल के लिये रुकने को कहता है ऐसे हु कुछ देर बाद चलने पर श्री राम को लगता है अब सिता जी थक चुकी है तो वही बड के वृक्ष के निचे आराम करते है वहा स्थित कुछ स्त्रीया माता सिता जी से प्रश्न करती है की हे माता आपके साथ ये दोनो पुरुष कौन है ये सुनते ही सिता जी शर्मा जाती है लेकिन कुछ बोल नही पाती फिर भी वे मन ही मन सकुचाती है कि बता नही पाती फिर कुछ सोच कर बताना सुरु करती है लक्षमण जी को दिखाकर कहती है की वे मेरे देवर है उनका नाम लाक्षमण है और राम को को दिखा कर कहती है की वे मेरे पती है उनका नाम राम है ये सुन के स्त्रिया खुश होती है, फिर वहा से आगे चलते है सन्ध्या के समय एक बड के वृक्ष के निचे आराम करते है सुबह होते हि प्रातः काल मे ही स्नान आदि से निवृत होकर भगवान सिता और लदक्षमण के साथ आगे निकलते I

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