Sunday, 1 May 2016

श्री राम और सुग्रिव मिलन तथा बाली का वध

 हनुमान जी अपने कन्धे पर दोनो भाइयो को उठा कर लाये और वानर राज सुग्रिव से मिलवाये , उसके उपरांत हनुमान जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर श्री राम और सुग्रिव की प्रतिज्ञापूर्वक मैत्री करवा दी, दोनों ने हृदय से एक दुसरे को प्रेम किया , और कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ मिथिलेशकुमारी सिताजी मिल जाएँगी I मैं एक बार यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराएके वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था , हमें देखकर उन्होंने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। श्री रामजी ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर रामचंद्रजी ने बहुत ही गहरी सोच मे पड गये I
फिर  सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर सुनिए सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा,  जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें I कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्री रामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए। और बोले हे सुग्रीव मुझे बताओ , तुम वन में किस कारण रहते हो?
फिर सुग्रीव ने कहा – हे स्वामि बालि और मैं दो भाई हैं , हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो राक्षस पुत्र था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँव में आया  , उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा । बालि शत्रु के ललकारको सह नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग लगा चला गया I वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा- तुम एक पखवाड़े (पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया ,  हे भगवान , मैं वहाँ महीने भर तक रहा। उस गुफा में से रक्त की बड़ी भारी धारा निकली। तब मैंने समझा कि उस राक्षस ने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा, इसलिए मैं वहाँ गुफा के द्वार पर एक बडा पत्थर लगाकर भाग आया I मंत्रियों ने नगर को बिना राजा का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे राजसिंहासन पर देखकर उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था , जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहाँ आकर राजा बन बैठा  I उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा I वह शाप के कारण यहाँ नहीं आता,  इसिलिये मै यहि पर रहता हूँ। सुग्रिव का दुःख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री राम की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं I उन्होंने कहा - हे सुग्रीव सुनो , मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे , जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को बड़े भारी दुख के समान जाने I जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है,  वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे , देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत श्रेष्ठ मित्र के लक्षण ये हैं I
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! इस तरह जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है I मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारी सहायता करूँगा I
सुग्रीव ने कहा - हे रघुवीर सुनिए, बालि महान बलवान और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के आसानी से ढहा दिया। श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे I जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा I क्योंकि आपके चरणों की आराधना करने वाले संत कहते हैं कि ये सब सुख-संपत्ति आदि राम भक्ति के विरोधी हैं। जगत में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख आदि हैं, सब के सब मायारचित हैं,  वास्तव में नहीं हैं ,  हे श्री रामजी बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले I हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर श्री रामजी मुस्कुराकर बोले-
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है, परंतु हे सखा मेरा वचन मिथ्या नहीं होता अर्थात बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा । तदनन्तर सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष-बाण धारण करके श्री रघुनाथजी चले। तब श्री रघुनाथजी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह श्री रामजी का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा , बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे नाथ सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं I वे कोसलाधीश दशरथजी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं I
बालि ने कहा- हे डरपोक प्रिये सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित वे मुझे मारेंगे ही तो मैं परमपद पा जाऊँगा , ऐसा कहकर वह महान अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घूँसा मारकर बड़े जोर से गरजा I तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसे की चोट उसे वज्र के समान लगी सुग्रीव ने आकर कहा - हे कृपालु रघुवीर मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है ,  श्री रामजी ने कहा दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है । इसी भ्रम से मैंने उसको नहीं मारा। फिर श्री रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही I तब श्री रामजी ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी और फिर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनों में पुनः अनेक प्रकार से युद्ध हुआ। श्री रघुनाथजी वृक्ष की आड़ से देख रहे थे I
सुग्रीव ने बहुत से छल-बल किए, किंतु अंत में हृदय से हार गया। तब श्री रामजी ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा , बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु प्रभु श्री रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। भगवान का श्याम शरीर है, सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिए हैं और धनुष चढ़ाए हैं I बालि ने बार-बार भगवान की ओर देखकर चित्त को उनके चरणों में लगा दिया। प्रभु को पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदय में प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे।
वह श्री रामजी की ओर देखकर बोला- हे गोसाईं। आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह छिपकर मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ किस दोष से आपने मुझे मारा?
 श्री रामजी ने कहा - हे मूर्ख सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता I हे मूढ़ तुझे अत्यंत अभिमान है। तूने अपनी स्त्री की सीख पर भी ध्यान नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी तूने उसको मारना चाहा I
बालि ने कहा - हे श्री रामजी सुनिए, स्वामी से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो अंतकाल में आपकी शरण पाकर मैं अब भी पापी ही रहा ? बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया और कहा  तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ,  तुम प्राणों को रखो। बालि ने कहा- हे कृपानिधान सुनिए , मुनिगण प्रत्येक जन्म में अनेकों प्रकार का साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता । जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से मुक्ति देते हैं I वह श्री रामजी स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभो ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा I
हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं आप के चरणों में प्रेम करूँ , हे कल्याणप्रद प्रभो यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए I श्री रामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही आसानी से त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना न जाने , श्री रामचंद्रजी ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्रकार से विलाप करने लगी। उसके बाल बिखरे हुए हैं और देह की सँभाल नहीं है I
तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी अज्ञान हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी,  जल,  अग्नि,  आकाश और वायु - इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है , वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया I तब श्री रामचंद्रजी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। श्री रघुनाथजी की आज्ञा से सब लोग श्री रघुनाथजी के चरणों में मस्तक नवाकर चले I लक्ष्मणजी ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और उनके सामने सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया I जो सुग्रीव दिन-रात बालि के भय से व्याकुल रहता था, जिसके शरीर में बहुत से घाव हो गए थे और जिसकी छाती चिंता के मारे जला करती थी, उसी सुग्रीव को श्री राम ने वानरों का राजा बना दिया। श्री रामचंद्रजी का स्वभाव अत्यंत ही कृपालु है I जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्ति के जाल में फँसें? फिर श्री रामजी ने सुग्रीव को बुला लिया और बहुत प्रकार से उन्हें राजनीति की शिक्षा दी I फिर प्रभु ने कहा- हे वानरपति सुग्रीव सुनो - मैं चौदह वर्ष तक गाँव में नहीं जाऊँगा। आ गई। अतः मैं यहाँ पास ही पर्वत पर रहूँगा I तुम अंगद सहित राज्य करो। मेरे काम का हृदय में सदा ध्यान रखना। तदनन्तर जब सुग्रीवजी घर लौट आए, तब श्री रामजी प्रवर्षण पर्वत पर रहने चले गये I

समाप्त 



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