Friday, 1 April 2016

वनवास के बाद अयोध्या

 ram-with-sitaप्रभु राम को जब पहुचा कर निशादरज अयोध्या आया तो उसने रथ को वही पर देखा मंत्री सुमंत अभी तक वही पर इंतेजार कर रहे थे, निशादराज को अकेले देखकर व्याकुल हो कर वे धरती पर गिर पडॆ हय राम हाय राम कहते हुए घोडे अभी भी उसी दिशा मे देख के हिन्हिनाते है( दक्षिड दिशा ) ना ही घास चरते ना हि कुछ खाते थे, ये सब देख के निशादराज भी व्याकुल हो उठा, लेकिन फिर भि धिरज धरकर सुमंत्र जी से कहता है, अब दुख छोडिये आप तो सारे विधि विधान को जानने वाले है अब दुख छोडिये और रथ पर बैठिये पर सुमंत्र जी तैयार नही होते फिर ना ना प्रकार के कहानिया कहकर निशादराज सुमंत्र जी को घोडे पर बैठाता है, ऐसा लगता है घोडे भी जाने को तैयार नही है कही भी राम का नाम सुनते ही रुक जाते और मुडकर देखते है, इन सब को निशादराज व्याकुल होकर देखते है, तब निशादराज ने अपने चार सेवको को बुलाकर मंत्री सुमंत्र के साथ भेजते है, तब जाकर निशादराज ने उन्हे विदा किया, वे चारो निशाद रथ को लेकर अवध चले, व्याकुलता मे मंत्री सुमंत जी सोचते है की बिना राम के जिना बहुत धिक्कार है, सुमंत्र जी हाथ मल मल कर पछताते है, सुमंत्र जी के मुह का रंग बदल गया था, उनके मन मे राम का वियोग था, कुछ बोल नही पाते थे मन ही मन सोचते है की अयोध्या जाकर मै क्या देखुंगा जब राजा दशरथ मुझसे पुछेंगे तो मै क्या उत्तर दुंगा, सुमंत्र जी यही सब सोचते हुए चले जाते है, तब तक तमसा नदी आ गया तब मंत्री ने विनय कर के चारो निशादो को विदा किया, मंत्री दिन मे नगर प्रवेश करने से सकुचाते है सारा दि एक पेड के निचे बैठकर बिताया, जब साम के वक्त अन्धेरा होने लगा तब जाकर प्रवेश करने का हिमत कर पाये, अयोध्या मे जा कर दरवाजे पर रथ को खडा किया और चुपके से राज दर्बार मे प्रवेश किया, कुछ लोग रथ को देखते ही पहचान गये और श्री राम वन से लौट आये ये सोच कर दौड कर आते है, पर सुमंत्र जी को अकेला पकर सब व्याकुल हो जाते है, सारा रनिवास यह खबर पाते ही दुख मे डुब गया सब रानिया पुछती है कि राम कहा है पर सुमंत्र जी कुछ उत्तर नही देते ये देख और भी रानिया व्याकुल हो उठती है, दासिया मंत्री जी को अकेला देखकर उन्हे कौशलया जे के महल मे ले गयी सुमंत्र जी वहा गये तो राजा को वहा व्याकुल देखा, राजा आसन, पलंग, सब छोड कर व्याकुल ऐसे हि धरती पर पडे हुए है, बार बार सिर्फ राम राम कह कर छाती पिटते है, मंत्री जी ने जय जीव कहकर राजा को प्रडाम किया, सुनते ही राज औठे और व्याकुलता से उन्हे गले लगा लिया और बोले कहो राम कहा है इस वक्त, हे सुमंत्र जी ये बताये कि अभी श्री राम, लक्षमण और मेरी सिता जी कहा है पर सुमंत्र जी कुछ बोलते नही है, राजा व्याकुल होकर फिर वही पुछते है बताओ कहा है, राजा कहते है की मैने राजा होने की बात कह कर उन्हे वन भेज दिया यह सुनकर भी राम ने थोडा भी दुख प्रकत नही किया, ऐसे पुत्र के बिछुडने पर भी मेरे प्राण नही निकले, हे सुमंत्र अब तुम ही बताओ कि मुझसे भी बडा पापि होगा कोइ, हे सखा जहा श्री राम है वही पर मुझे भी पहुचा दो, राजा बार कहते है हे सखा जल्दी सन्देसा सुनाओ, तब सुमंत्र जी कहते है आप पंडित और ज्ञानी है, आप शुरवीर और उत्तम पुरुष है, आपने सदा साधुओ का सेवा किया है, हे स्वामी दुख और सुख सब रात और दिन कि भाती आते जाते रहते है, दुख मे रोना और सुख मे हसना तो मुर्ख लोगो का काम है, आप विवेक से शोक का त्याग किजिये और धीरज धरेये, इतन कहने के बाद सुमंत्र जी कहना सुरु करते है, सुमंत्र जी बताते है की पहला राम का निवास तमसा नदी के तट पर हुआ, दुसरा गंगा जी पर उस दिन सिता सहीत दोनो भाइ सिर्फ जल पिकर ही रहे, केवट (निशादराज) ने बहुत सेवा की, वह रात श्रींगवेरपुर मे ही बिताइ, दुसरे दिन सवेरा होते ही बड का दुध मंगाकर जट्टा बनाए, उसके बाद निसादराज से नाव मंगाया और पहले सिता जी को नाव मे बठाया फिर खुद बैठे उसके उपरंत खुद नाव मे सवार हुए तब तक लक्षमण जी तिर धनुष सजाये रखे, और अंत मे श्री राम जी का आज्ञा पाकर खुद भी नाव मे चढे, मुजे व्याकुल देखकर श्री राम ने कहा हे तात पिताजी से मेरा प्रडाम कहना और मेरि ओर से बार बार उनके चरण कमल पकडना, और उनसे कहना वे मेरि चिंता ना करे मै सकुसल घर लौट आउंगा, मेरी तरफ से गुरु वशिश्ठ जी को भी प्रणाम कहना, और पुरे अयोध्या वासियो से मेरा अनुग्रह सुनना कि वे वही कार्य करे जिससे महाराज कु सुख मिले, भरत के आने पर मेरा सन्देसा उन्हे सुनाना कि राजा का पद पाने पर कही वह राज मर्यादा ना भुल जावे, कर्म वचन और धर्म से प्रजा का पालन किजियेगा, और सब माताओ को सम्मान जानकर उनकी सेवा किजियेगा, लक्षमण जी ने कुछ कठोर वचन भी कहा लेकिन बार बार श्री राम ने उन्हे मना कर के अनुरोध किया कि लक्षमण कि बात वहा ना बताइयेगा, प्रडाम कर सिता जी भी कुछ कहना चाहती थी पर स्नेह के कारण कुछ कह ना पायी, वे रुक गयी और आखो मे जल भर गया, उसी वक्त श्री राम का इशारा पाकर केवट ने नाव चला दिया, इस प्रकार श्री राम चले गये और मै देखता रहा, मै अपना दुख कैसे बताउ की मै अभी तक कैसे जिन्दा हु समझ नही आता I

सारथी सुमंत्र के बात सुनते ही सब रानिया व्याकुल हो कर रोने लगती है, राजा के रनिवास मे रोने की आवाज सुनकर पुरे अयोध्या मे हाहाकार मच गया अब राम के लौट आने जो भी आशा थी वह भी खत्म हो गयी, राजा के प्राण कंठ मे आ गया इन्द्रीया वश मे ना रही, तब कौशल्या जी ने राजा से कहा हे नाथ अयोध्या एक जहाज है और आप उसके खेने वाले है, सब प्रियजन ( कुटुम्बी और प्रजा) उस पर चढे हुए है, अगर आप ठिक रहते अहि तो सब उस पार ओअहुच जायेन्गे वरना सब डुब जायेंगे, आप धीरज धरीये आपको श्री राम, लक्षमण और सिता फिर आ मिलेंगे, कौशलया जी की ये बाते सुनकर राजा ने अपनी आखे खोल के सब को क्षड भर के लिये देखा, और मंत्री सुमंत्र जी से बोले कहो श्री राम कहा है लक्षमण कहा है मेरि प्यारी बहु सिता जी कहा है, तब फिर राजा व्याकुल होकर रोंए और उनसे वह रात युग के सामान कटा और उन्हे अन्धे तपस्वी (श्रवण कुमार के माता पिता ) की श्राप याद आने लगा, उन्होने सारी बात कौशल्या जी को कह सुनाया, उस इतिहास को वर्णन करते हुए राजा व्याकुल होकर कहने लगे की श्री राम के बिना जिना धिक्कार है, मै श्री राम के बिना जी कर क्या करुंगा, ऐसे ही राम राम कहते कहते हुए राजा दशरथ बहुत ज्यादा व्याकुल हो उठे अब उन्हे राम के अलावा कुछ सुझता नही, बस राम राम कहते हुए राजा ने प्राण त्याग दिया, और प्राण त्यागकर सुरलोक सिधार गये, पुरे अयोध्या मे दुख छा गया सब रोने लगे रानिया राजा का त्याग, बलिदान और प्रभाव कि कहानिया कह कर अनेको प्रकार से विलाप करती है और बार बार धरती पर गिर पडती है, दस दासिगण सब रो रहे है, सब कहते है की आज धर्म की सिमा, गुण और रुप के भंडार सुर्यकुल का सुर्य अस्त हो गया I

सब केकैइ को दोष देते है और कहते है कि केकैइ ने पुरे संसार को अन्धा कर दिया है, तब मुनि वशिश्ठ ने अपने ज्ञान के प्रकाश से सबका दोश दुर किया, उन्होने नाव मे तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमे रखवा दिया, फिर दुतो को बुलाकर उन्हे भरत और शत्रुध्न को बुलाने भेजते है और उन्हे समझाते है की राजा के बारे मे दोनो भाइयो को कुछ ना कहना बस उनसे कहना आप दोनो को गुरु जी ने बुलाया है वे दोनो दौडे आयेंगे, दुतो ने मुनी का आज्ञा पाते ही दौडना सुरु किया और घोडो से भी तेज चाल से जाकर गुरु जी के आदेश को दोनो भाइ भारत और शत्रुध्न से बताया यह सुनते ही दोनो भाइ बडे तेजी से अपने घोडे लेकर चले, जब अयोध्या के द्वार पर पहुचे तो हर तरफ सन्नाटा देखकर वे घबरा गये और जल्द से जल्द राज महल की तरफ तेजि सेव बढे, ऐसी विप्पती सी देखकर उन्हे किसि से कुछ पुछने की भी हिम्मत नही होती वे और तेजी से घोडो को भगाते है, और राजमहल पहुच जाते है, राज महल पहुचकर देखा तो हर तरफ दुख ही दुख दिखायी दे रहा था, राजमहल का प्रत्येक व्यक्ती दुखी दिख रहा था सिवाए केकैइ के, दोनो पुत्रो को देखकर वे पुछती है की बताओ सब मेरे नैहर मे खैर तो है, भरत जी ने सब कुशल कह सुनाइ, फिर अपने कुल की कुशल पुछा उन्होने पुछा की मेरी सब माताए कहा है मेरी प्यारी भाभी सिताजी कहा है, मेरे भाइ श्री राम और लक्षमण कहा है, फिर उन्होने पुछा की पिता जी कहा है कही दिखते ही नही, यह सब सुनते ही केकैइ ने कहा की मैने सब बात बना दिया था, मंथरा ने ही युक्ती दी थी, बेचारी मंथरा ही सहायक सिद्ध हुइ जो इतनी अछी बुद्धी बताइ, यह कहकर उन्होने सारी बात बता दी, यह सुनते ही दोनो भाइ विलाप करने लगते है, माता को और ना ना प्रकार के चुभने वाले वचन बोलते है, और पृथ्वी पर गिर पडते है , वे यह कह कह कर भी विलाप करते है की मैने आपको स्वर्ग लोक जाते हुए भी नही देखा, आपने मुझे श्री राम को सौपा भी नही, फिर धीरज धरकर उन्होने पिता के मरने का कारण पुछा तो केकैइ ने सब खुशी खुशी बता दिया, माता कि कुट्ल्ता सुन कर सत्रुध्दन भी जल रहे है, तब तक उसी समय मंथरा सज धज कर और ना ना प्रकार का जेवर पहन कर मंथरा वहा आ पहुची, उसे देखते ही सत्रुध्दन ने उसे कुबड पर एक लात जमा दिया, इतने मे मंथरा मुह के बल गिरि और उसके मुह से खुन निकलने लगा, उसका कुबड टुट गया, कपाल फुट गया और दात भी टुट गये, मंथरा कहती है की बताओ मैने क्या है जो तुमने मुझे लात मारा एक तो तुम्हारे लिये इतना किया और तुमने हि मुझे लात मारा यह सुनते ही उसके झोटा पकडकर उसको घसिटना सुरु किया, तब दया-निधि भारत ने उन्हे छुडा दिया, उसके बाद कौशल्या जी के पास जाते है तो कौशल्या जी को देखकर वे भी व्याकुल हो जाते है कौशल्या जी ने मैले वश्त्र पहन रक्खा है, भरत को देखते ही माता दौड पडी पर चक्कर आने की वजह से वही मुर्छीत होकर गिर पडी, यह देखकर भरत जी शरीर का सुध खो बैठे और माता कौशल्या के चरणो मे जा गिरे, वे कहते है की हे माता आप मुझे पिता जी से मिलवा दिजिये बडे भाइ राम से मिल्वा दिजिये भाइ लक्षमण और माता जैसी भाभी सिता जी से मिल्वा दिजिये यह सुनते ही कौशल्या जी ने उन्हे गले लगा लिया, फिर बोलते है के इन सब कारणो का मै अकेला ही भागी हु मेरे वजह से कुल का नाश हुआ है, इस जगत केकैइ क्यु जन्मी और जन्मी भी तो बाझ क्यु ना हो गयी, पिता जी स्वर्ग मे है और श्री राम वन मे है सिर्फ मै ही यहा हु, यह सुनकर माता कौशल्या ने फिर भरत को गले लगा लिया और बोली हे भरत किसि को दोष मत दो, विधाता अब हर प्रकार से उल्टा हो गया है फिर भी मै जी रही हु पता नही मै जिन्दा हु, पिता की आज्ञा स्र श्री राम ने भुषण-वश्त्र त्याग दिये वल्कल-वश्त्र धारण किये, उनका मन प्रशन्न था और उन्हे किसि प्रकार का दुख ना था सब तरह से संतोष से वे वन गए है यह सब होते देख कर लक्षमण भी उनके साथ चले गये, फिर श्री राम ने सब को प्रडाम कर छोटे भाइ लक्षमण और सिता जी ज्के साथ वन चले गये, ये वचन सुनकर भरत जी फिए से व्याकौल हो उठे और विलाप करने लगे फिर कौशलया जी ने दोनो भाइयो को गले से लगा लिया, और उन्हे समझाने लगी, उसके बाद भरत जी ने सब माताओ को पुराणो और वेदो की बाते बताकर समझाया, उनकी ये सारे वचन सुनकर माता कौशल्या सुन कर कहती है की हे भरत तुम तो सचे मन से ही श्री राम के प्रिय हो, तुम श्री राम के प्राणो से भी प्यारे हो, ऐसा कहकर कौशल्या जी ने भरत जी को गले से लगा लिया I उनके स्तनो से दुध बह्ने लगा और आखो से पानी बहने लागा, इसि प्रकार सारी रात बित गयी I

अगले दिन वामदेव जी और गुरु वशिश्ठ जी आए उन्होने सब मंत्रीयो तथा महाजनो को बुलावा भेजा, गुरु ने भरत समझाते हुए भरत को धिरज धराया और कहा की हे बह्रत उठो यह सुन कर भरत उठे और सब तैयारी करने को कहा, वेदो मे बताऐ हुए तरीके से राजा को नहलाया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया, भरत ने सब माताओ के चरण पकणकर रोसती होने से रोके रक्खा, इस प्रकार दाह क्रिया सम्पन किया गया, मुनी के आदेशानुसार भरत जी ने सब कुछ वैसा ही किया जैसा मुनि ने कहा, सिंघासन कपडे गहने, अन्न पृथ्वी, धन, वह सब कुछ दिया जो उन्हे देना चाहिये था, इस प्रकार उन्होने अपने पिता की दाह संस्कार किया जिसे देख के सब खुश थे I

सुभ मुहुर्त निकालकर राज सभा बुलवाया गया, मुनी ने भरत और सह्त्रुध्द्न को अपने पास बुलाया और उन्हे सम्झाने लगे पह्ले तो श्री राम जीकी बडाइ और बाद मे समझाने लगे की पहले जो केकैइ ने किया और बाद मे दशरथ का निधन यह सब भगवान का लिला है अब उनके लिये शोक मत करो क्यु की राजा स्वर्ग मे गये है राजा का पराक्रम किसी भी लोक से अछुता नही था और राजा ने हमेशा प्रजा की भलाइ के लिये ही काम किया अतः हे भरत अब इन सब बातो को भुल जाइये और किसि के उपर भी दोष मत डालिये, राजा सब प्रकार से बाडाइ के पात्र थे, अतः अब राजा के बारे मे सोचना गलत है, हे भरत राजा वचन प्रिय थे प्रण प्रिय नही, परशुराम जी ने पिता की आज्ञा रक्खी और माता को मार डाला, राजा ययाती के पुत्र ने अपने पिता को अपनी जवाने दे दी, पिता के आज्ञा मानने से किसी का बुरा नही होता सब बह्ला होता है, मंत्री हाथ जोडकर कहते है की गुरु जी की बात मान लिजिये, माअता कौशल्या भी कहती है की पुत्र गुरु का बात मानो गुरु का बात पथ्यरुप है, श्री रघुनाथ वन मे है और महाराज स्वर्ग मे चले गये हे पुत्र कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और माताओ सब का तुम ही सहारा हो, यह सब वचन सुनकर भरत जी कहतेहै की ठीक है मै आप सब का बात मानता हु पर मै श्री राम का चाकरी करने मे हि अपना भलाई समझता हु, माता की कुटिलता ने श्री राम की चाकरी छिन लिया, पर मै बिना राम से मिले यह सब नही कर सकता, आतः आप सब मुझे श्री राम से मिलने की आज्ञा दिजिये, मै सत्य कह्ता हु धर्म्शील श्री राम को ही राजा बनना चाहिये, आप लोग हठ करके मुझे राज्य देंगे उसी वक्त पृथ्वी पाताल लोक चली जायेगी, मेरे सामान पापो का भागी कौन होगा, जिसकी वजह से श्री राम जी और सीता जी को वनवास हुआ, और मै दुष्ट जो सारे अनर्थो का भागी हु, सब बाते सुन रहा हु,मुझे केकैइ ने सब कुछ दे दिया जो मुझे चाहिये था यह तो वैसा हे है  जैसा किसी को कुग्रह लगे हो और उसी को बिछु ने डंक मार दिया हो, मेरी माता केकैइ को छोडकर बोलिये और कहेगा की यह सब अछा हुआ, जीवन का लाभ तो लक्षमण जीको मिला क्यु की वे श्री राम जी के साथ गये, ये प्रेम भरे वचन सुनकर माता कौशल्या प्यार से कहती है हे बह्रत आप तो राम के परम प्रिय है, आप राम्से मिलने जरुर जाये, आप वन को अवश्य चले जहा पर राम है, यह सुनते ही सब आनन्दित हुए बिना नही रहे,सबने भरत और गुरो को प्रणाम किया और फिर अपने घर को प्रस्थान किया, आपस मे सब भरत कि बाडाइ करते है, घर घर मे तैयारिया सुरु हो गया सब अब यही बात करते है कल सुबह श्री रामजी से मिलने चलना है, सारी सम्पती श्री राम जी कि है सब यही सोचते है, भरत जी ने सबके सामर्थ्य के अनुसार कार्य बाट दिया, नगर क्र सब लोग अपने अपने रथ सजाकर चित्रकुट को रवाना हुए विश्वाश पात्र सेवको पर नगर छोडकर भरत और शत्रुध्न भी चले, फिर माता कौशल्या अपना पालकी भरत के सामने लाकर रोकती है और कहती है की हे भरत तुम रथ पर चढ जाओ वरना सब पैदल चलेंगे यह रास्ता पैदल चलने लायक नही है और ऐसे भी जब से राम गये है तब से सब का रो रो कर बुरा हाल हो रक्खा है, माता की आज्ञा पाकर दोनो भाइ रथ पर चढे, रात भर सै नदी के तट पर निवास करके सबेरे वहा से चल दिये और सब श्रीरंगवेर्पुर जा पहुचे, निषाद्राज ने जब यह सुना तो डर गया कि कही भरत राम से लडाइ करने तो नही जा रहे है, निषादराज ने तुरंत अपने लोगो को बुलाता है और उन्हे लडाइ को तैयार करता है निषादराज उनका मनोबल उचा करता है और कहता है कि हम राम के लिये अपना जान न्योछवर कर देंगे पर केकैइ पुत्र भरत को राम पर आक्रमड नही करने देंगे हम आखिरी सास तक लडेंगे, वह अपने लोगो का मनोबल उचा कर रहा होता है उसि वक्त एक बुढा निषाद कहता है अरे पहले यह तो पता करो की भरत जा क्यो रहे है, भले ही भरत इतने बडी सेना लेके जा रहे है पर एक बार पता जरुर कर लेना चाहिये, यह बात सुनकर निषाद राज कहता है की बुढा सत्य कहता है आप लोग तैयार रहे मै जाकर भरत का मन देखता हु कि मन मे क्या है उनके मन मे राम का हित है या राम के लिये बुरा है, यह कहकर निषाद भेट मे कद, मुल, फल, पक्षी, और हिरण मंगवाये कहार लोग पुरानी और मोटी पहीना नामक मछलियो को लेकर चले ये सारे भेट साथ लेकर निषादराज भरत के पास जा पहुचा भरत ने निषाद ने दुर से ही मुनी को पहचान कर दंडवत करने लगा, तब मुनि वशिश्ठ जी ने यह बताया की यह निषादराज है ये श्री राम के के मित्र है, इतना सुनते ही भरत जी रथ से उतर कर निषादराज को गले लगा लिया, यह देखकर निषाद राज आश्चर्य से भरत जी को देखता रहा और कहने लगा मै निच जाती का जीव निच कार्य करने वाला कायर कपटी हु, लोक-वेद दोनो से सब प्रकार से अलग हु, जब से मुझे श्री राम ने अपनया है तब से मै इस दुनिया का भुषण हो गया हु, निषादराज का प्रिय वचन सुनकर शत्रुध्दन भी उनसे मिले, रानिया उसे लक्षमण के समान समझती है और लाखो वर्ष तक जियो कहके आशिर्वाद देती है, उसने अपने सेवको को इशारा किया कि वे अब भरत के इशारे पर ही चले, उसने तुरंत घरो मे, तालबो, पर न्दी घाट पर सबके रुकने का प्रबन्ध कर दिया, भ्बरत जी निषाद के कन्धो पर हाथ रख के श्रीरग्वेरपुर देख रहे थे, इस प्रकार भरत जी ने सब सेना को साथ लिये हुए गंगा जी का दर्शन श्री राम घाट (जहा पर प्रभु ने सन्ध्या स्नान किया था) पर किया, भरत जी ने गन्गा जी मे स्नान कर अपने लिय वरदान मांगते है की उनका श्री राम मे भक्ती बना रहे, इस प्रकार गुरु जी से आज्ञा प्राप्त कर और सब माताओ का स्नान हो गया यह देखकर भरत जी ने वहा से आगे बढने का मन बनाया, सब ने उस दि श्रीरंग्वेरपुर मे हि डेरा डाला, सब का पता लगा के भरत जी भाइ शत्रुध्दन के साथ माता कौशल्या के पास गये और उनका चरण दबा कर सेवा करने लगे, फिर कुछ देर बाद माताओ के सेवा का कार्य शत्रुध्दन को सौपकर वे वहा से निकल कर निषाद राज के पास गये, वे निषाद राज के साथ हाथ मिलाकर चलते है फिर उन्होने यह कहा की सख आप मुझे वह जगह दिखाओ जहा रात को श्री राम और सिता जी ने विश्राम किया यह कहते हुए उनके नेत्रो से आसु निकल गये, यह देखकर निषाद राज ने तुरंत वह जगह दिखा उस अशोक के वृक्ष के निचे भरत जी दंडवत-प्रणाम किया फिर वहा सिता जी के वस्त्रो से गिरे हुए सोने के कण इत्यादि को उठाकर अपने सिर पर रख लिया( अर्थात उन कणो को भी सिता जे के बराबर माना ), उसके बाद भरत जी कहते है की धन्य है लक्षमण जी ना ही उनकी तरह भाइ है और ना ही इस जगत मे होगा, यह कहकर फिर केकैइ का पुत्र होने के नाते खुद को कोसते है और रोते है, यह सब देख के निषादराज ने उन्हे धिरज धराया, जग नगर के लोगो को पताअ चला कि भगवान राम यहा रुके थे तो सब वहा जाकर परिक्रमा करते है और रात भर सब जगे रहते है, सबेरा होते ही सुन्दर नाव पर गुरु जी को चढाया और फिर नयी नावो पर माताओ को बैठाया, चार घडी मे सब गंगा जी के पार उतर गये, तब भरत जी ने सबको सम्भाला, फिर वहा से निषादो को आगे कर लिया रास्ता दिखाने के लिये, और उनके साथ सेना लगा दिया निषादराज को आगे करके फिर सब माताओ को उसके पिछे पालकियो मे भेजा और छोटे भाइ शत्रुध्दन को उनके साथ लगा दिया, फिर ब्राह्मणो सहित गुरु जी ने गमन किया उनके पिछे भरत जी अपने घोडो के साथ पैदल ही चल पडे, सेवक बार बार कहते है की हे नाथ आप घोडे पर चढ जाये पर भरत जी जवाब देते है की श्री राम तो पैदल हि गये थे, सिता–राम सिता-राम कहते हुए प्रयाग पहुचे भरत जी के पैरो मे छाले पड गये, भरत जी ने प्रयाग मे गंगा-यमुना के संगम पर स्नान किया और तिर्थराज प्रयाग को नमन किया, और उसके बाद मुनी भार्दवाज के पास आये मुनी को प्रणाम किया और ऐसे लजाते है कि मानो घर मे चले जायेंगे वे सोचते है मुनी अगर पुछते है तो मै क्या उत्तर दुंगा माता कि करनी पर वे बहुत पछताते है, यह देखकर मुनी उन्हे समझाते है, माता कि करनी समझ कर पछतावा मत करो उनका कोइ दोष नही है , उनकी बुद्धी तो सरस्वती बिगाड गयी थी, सारा दुख का कारण श्री राम का वनगमन है हे भरत आप श्री राम के सबसे प्यारे है यह भेद मैने प्रयाग मे स्नान करते वक्त जाना, भार्द्वाज मुनी के वचन सुनकर सात्रा समाज खुश हो गया, इसी प्रकार वार्तालाप चलता रहा, फिर मुनी ने कहा आप लोग हमारे अतिथि बने आप लोग कन्द मुल का भोजन करे, तब हरत जी ने कहा हे नाथ आपकी आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म है, यह सुनकर मुनिराज ने अपने सेवको को बुलाकर कन्द मुल लाने भेज दिया, अब मुनि ने सोचा की हमए बडे मेहमानो को न्योता दिया है तो उनका मेहमानी भी वैसे ही करना चाहिये, मुनी का यह चिंता देखकर सब ऋधिया और सिद्धिया प्रकट हो गयी और बोलि कि आज्ञा दे, मुनिराज ने प्रशन्न होकर उन्हे दोनो भाइ सहित पुरे प्रजा की श्रम दुर करने को कहा, उन्होने तुरन्त मुनी का आज्ञा मानते हुए तुरंत बसुत सारे सुन्दर महल बना दिये, उन घरो मे सब प्रकार के भोग के सामान भी रखे गये, और फिर कुटुम्ब सहित भरत जी को दिये, जब भरत जी ने मुनी के प्रभाव को देखा तो उन्हे मुनी के समान और कोइ नही लगा, उन्हे सारे लोकपालो के लोक तुछ जान पडे, सब भोग विलास के सामानो के साथ रहते हुए भी भरत जी ने मन तक से उन सब चिजो को छुआ तक नही, सबेरे होते हि भरत जी तीर्थराज मे स्नान करके मुनी को सिर नवा कर चल पडे सखा गुह के साथ ऐसे हाथ मिलाकर चलतेचलते हुए देख सब सोचते है की गुह कितना धनी है, इसे तो सब कुछ मिल गया, उत्तम पथप्रदर्शको के साथ भरत चित्रकुट चले, बादल छाया करते है धरती कोमल हो गयी देवता फुल बरसाते है रास्ता एक दम कोमल हो गया ऐसा रास्ता तो राम के जाते वक्त भी नही हुआ था, भरत जी के प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को ऐसा लगने लगा की कही इनके प्रभाव से श्री राम वापस ना चले जाये, इससे हमारा बनाया हुआ काम बिगड जायेगा और जगत के लिये यह सही नही होगा, इन्द्र ने गुरु बृहस्पती जी से कहा जल्दी कुछ ऐसा छल से उपाय करे की भरत और श्री राम का मिलन ना हो वरना श्री राम प्रेम के पुजारी है भरत प्रेम के सागर कैसे भी इनका मिलना रोका जाये, इन्द्र के वचन सुनते ही गुरु बृहस्पती को हजार नेत्रो वाले इन्द्र बी अन्धा लगते है, वे कहते है की श्री राम के साथ माया नही लगता अगर उनके साथ माया की जाये तो वापस उसी को आ लगता है जिसने माया की हो, उनका प्रभाव तो ऐसा है की वे अपने प्रती हुए अपरध पर भी कभी रुष्ट नही होते, वे फिर कहते है के हे देवराज आप श्री राम के भक्त के साथ छल करने की कतै ना सोचे, ऐसा करने से लोक मे अपयश और परलोक मे दुख होगा, हे इन्द्रराज सुनो श्री राम अपने सेवक को बडा प्रिय मानते है और जो भी उनके सेवक को हानी पहुचाता है वे उससे भी बैर करते है, देवगुरु बृहस्पती की बाते सुनकर देवराज इन्द्र का चिंता दुर हो गया, और भरत जी यमुना किनारे पहुच गये, उस दिन यमुना किनारे निवास किया, निषादराज के कृपा से वहा अनगिनित नावे आ गयी, सबने एक बार मे ही यमुना जी को पार कर लिया, आगे आगे मुनी जा रहे है पिछे सारा अयोध्यावासी चले जा रहे है, मार्ग के स्त्री पुरुष यह सुन कर दौडे आते है, स्त्रीयो को भ्रम होता है की रंग रुप सब तो वही है कही यह श्री राम और लक्षमण तो नही है, तो कुछ कहती है की इनका तो वह वेश भुषा नही है, उनमे से एक कहती है की ये भरत है देखो अपने पिता के दिये हुए राज्य को त्यागकर कैसे पैदल जा रहे है, इनके जैसा भाइ ना हुआ है और ना ही होगा, भरत तो बस श्री राम्को याद करते हुए चले जाते है वे तिर्थ और मुनियो को देखकर प्रणाम करते है और मुनियो से राम के बारे मे पुछते जाते है, वे पुछते है की श्री राम जानकी जीकिस वन मे और कहा है कुशल   पुर्वक तो है, फिर रात हुआ और वही पर रहना हुआ अगले दिन सुबह उठकर जल्दी चल दिये, सब श्री राम भक्ती के नशे मे चले जा रहे है सबको बस राम ही राम सुझ रहे है, अब सब थक चुके है सब के होठो पर राम नाम है, कुछ ही देर बाद निषादराज जी ने भरत को पर्वतशिरोमणी कादमगिरी को दिखाया जो की पयस्वीनी नदी तट पर है, गुह कहते है की वही श्री राम भाइ लक्षमण और सीता जी के साथ रहते है, सब लोग उस पर्वत को देखकर खुश होते है और वही से प्रणाम करते हैI

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