Sunday, 1 May 2016

श्री राम और हनुमान मिलन

श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। अब वे ऋष्यमूक पर्वत निकट आ चुके थे । वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर , सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्‌! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना I यदि वे मन के मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाउंगा (यह सुनकर) हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धरकर वहाँ गए और सर नवाकर इस प्रकार पूछने लगे , हे वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?
मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप इस वन के कठिन धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवताओं में से कोई हैं, या आप दोनों नर और नारायण हैं,  अथवा आप जगत के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान है , जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?
यह सुनकर श्री राम ने उत्तर दिया - यहाँ वन में राक्षस ने मेरी पत्नी सिता को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते रहे हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए , प्रभु को पहचानकर हनुमान्‌जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े उन्होंने साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम किया। हनुमान जी का शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकल रहा है । वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं ! फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। फिर हनुमान्‌जी ने कहा - हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा,  वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा ,  परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं ? एक तो मैं यों ही मंद हूँ , दूसरे मोह के वश में हूँ , तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ , फिर हे दीनबंधु भगवान ! प्रभु आप ने भी मुझे भुला दिया I  एहे नाथ , मुझ में बहुत से अवगुण हैं ,  तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े आप उसे न भूल जाएँ । हे नाथ  जीव आपकी माया से मोहित है । वह आप ही की कृपा से मुक्ति पा सकता है , उस पर हे रघुवीर, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है । प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है ,करना ही पड़ता हैI ऐसा कहकर हनुमान जी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े , उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्री रघुनाथजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल कियाफिर श्री राम ने कहा - हे कपि सुनो , मन छोटा न करना । तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता) I और हे हनुमान अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर जगत मेरे स्वामी भगवान का रूप है I  स्वामी को अनुकूल देखकर पवन कुमार हनुमान जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। हनुमान जी ने कहा – हे स्वामि इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है I हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा I
इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान जी ने श्री राम-लक्ष्मण दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव ने श्री रामचंद्रजी को देखा तो अपने जन्म को अत्यंत धन्य समझा I सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। श्री रघुनाथजी भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगकर मिले। सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता क्या ये मुझसे प्रीति करेंगे ? वहा उपस्थित समस्त लोग श्री राम और लक्ष्मण की जय हो की स्तुति करने लगते है I

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