Friday, 1 April 2016
चित्रकुट मे भरत
तब भरत जी कहते है की हे नाथ गुरु जी सब कुटुम्बियो और नगर वासियो और माताओ के साथ सब व्याकुल होकर आये है, यह सुनते ही श्री राम अति वेग के साथ भाइ शत्रुद्धन को सिता जी के पास छोड कर गुरु जी से मिलने चले, गुरु जी के दर्शन करके श्री राम और लक्षमण सबसे पहले माता केकैइ से मिले और उनको सांतवना देते हुए सब कुछ विधि का विधान बताते हुए उन्हे शोक ना करने को कह के श्री राम आगे बढे और फिर दोनो भाइ माता सुमित्रा से मिले और उनके गले लगे देर तक उनसे बाते करते रहे, फिर अंत मे दोनो जाकर माता कौशल्या से जा मिले माता ने दोनो भाइयो को गले लगाया और रोंर लगी जिसे देख के दोनो भाइयो ने उन्हे समझाया और माता, भाइयो, गुरु जी और कुछ गिने चुने लोगो के साथ आश्रम कि ओर चले जाकर आश्रम मे सब एक कतार मे बैठ गये और बात विचार सुरु हुआ फिर कुछ धर्म कि बाते करने के बाद गुरु वशिश्ठ जी ने फिर राजा के मरने का समाचार बताया ये सुन के उन्हे बहुत दुख हुआ और अपने पिता के मरने के कारणो को खुद को सोच कर उन्हे बहुत दिक्कत होती है फिर गुरु जी ने उन्हे धर्म और कर्म की कहानी सुनाकर उन्हे समझाय और यह तो होना ही था ऐसा कहकर समझाया, दुसरे दिन सुबह होने पर जैसे वशिश्टः मुनि ने आज्ञा दिया वैसाही प्रभु श्ह्री राम ने किया, वेदो के अनुसार अपने पिता की क्रिया करने के उपरांत दो दिन बाद श्री राम ने गुरु जी से कहा हे गुरु देव आप अब दोनो भाइयो और माताओ के साथ अयोध्या लौट जाइये क्यो की मै उन्हे देख के यहा दुखी हो रहा हु मै उन्हे कन्द मुल और फल खाते हुए ज्यादा दिन तक नही देख सकता, राज भी स्वर्ग्लोक मे है और आअयोध्या अभी सुनी है, अतः आप से अनुरोध है आप जल्द इन सब को लेके अयोध्या लौट जाये, ये सुन के मुनी ने कहा हे राम आप दया के सागर है आप दो दिन तक इन्हे अपने साथ रह्ने दे तब्तक इन्हे भी आपके साथ रहने का फल मिल जायेगा श्री राम जी के वचन सुनकर सारा समाज दुखि हो उठा पर उन्होने गुरु की बात मान ली, सिता जी ने तिनो सासुओ कि खुब सेवा किया और मनचाहा वर की प्राप्ती की, कुटिल केकैइ भी ये सब देख के बहुत पछतायी, रात को भरत जी को निन्द नही आती वे सोचते है की अगर गुरु जी कहते है तो श्री राम पका ही लौट चलेन्गे पर गुरु जी बिना श्री राम की रुची जाने कुछ नही कहेन्गे और माता कौशल्या भे अगर हठ करती है तो श्री राम जी पका लौट चलेंगे पर क्या वो ऐसा करेंगी मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है, एक भी युक्ती भरत जी के दिमाग मे नही रुकता, सोचते हुए रात निकल गयी, सुबह हुआ भरत जी ने श्री राम जी को शिर नवा के अभी बैठे ही थे क्की गुरु का बुलावा आया, भरत जी आकर गुरु जी की आज्ञा पाकर बैठे गये, उसी समय मंत्री ब्राह्मण महाजन आदि सब सभाजन आकर बैठ गये, तब गुरु जी ने कहा हे सभाजन सुने श्री राम धर्मधुरन्धर और सत्यप्रिय और स्वतन्त्र भगवान है, वे दुष्टो का नाश करने वाले देवताओ के हित के रक्षक है, वेदो और शाश्त्रो को विचार कर देखा जाये तो जहा तक जीव मन्डल है वह तक सभी श्री राम के आज्ञानुसर चल रहे है, अतः हे भरत जो उचित हो और जिस प्रकार राम अयोध्या चले वह युक्ति बताओ, यह सुनकर भरत कहते है आप कि आषिश हि दुखो को दुर करने वाला और आपका आज्ञा भला कौन टाल सकता है और आप मुझसे युक्ति पुछ रहे है, तब मुनि ने कहा हे तात मुझे कहने मे दुख हो रहा है अतः मै कह नहि पा रहा हु लेकिन मै कहता हु कि तुम दोनो भाइ भरत और शत्रुध्न वन क जओ और राम और लक्षमण को लौटा दो यह सुनकर दोनो भाइ खुश हो गये सारे समाज को खुशी हुइ पर रानियो को दुख हुआ और रोने लगी क्योकि दो पुत्र तो वन मे हि रह रहे थे, तब श्री राम जी आ गये और सब लोगो को प्रणाम कर राम बैठे तब मुनी ने कहा हे राम भरत तुमसे कुछ कहना चाहते है, यह सुनकर श्री राम ने कहा हे भरत जो भी कहना है कहो मै शपथ खाता हु और कहता हु की जो तुम कहोगे मै वहि करुंगा, पुरे सभा मे भरत उठ कर खडे हुए और प्रेम वश कुछ कह नही पाते भरत जी कहते है कि मै क्या कहु सब कुछ गुरु जी ने कह दिया है, अब सब कुछ विधाता के हाथ मे है, मै तो कुटिल माता के किये गकत चालो कि वजह से शर्मिन्दा हु पर प्रभु ने मुझे माफ कर दिया यह मेरे लिये बहुत बडी बात है, प्रम के वश होकर भरत जी अपनी माताकी करनी कह कर पछ्ताते है तब गुरु जी ने उचित वचन कह कर उनको सांत कराते है, प्रभु राम कहते है कि हे भरत संकोच छोडो जो भी कहना है उसे कह डालो मै कसम खाता हु जो भि कहोगे मै वही करुंगा यह सुनते हि सारे देवता और इन्द्र यह सोचने लगते है अब लगता है की सब काम बिगणने वाला है प्रभु तो भरत के वश मे है, सब देवता गण व्याकुल हो उठते है, तब देवताओ ने यह मत दिया की अब सब कुछ भरत जी के हाथो है अतः सब भरत जी को स्मरण करो, त्ब देवगुरु बृहस्पती ने कहा हा यह उचित है, भरत जी का स्मरण करने से ही काम बनने वाला I
तब भरत जीने कहा हे प्रभु मै आपका सेवक हु आप जो कहे मै वही करु, हे प्रभु आपका आज्ञा ही मेरे लिये सब कुछ है अतः पह्ले मेरे विनति सुनले उसके बाद प्रभु को जो अछा लगे वह करे, मेरी तो आपसे यह विनती है की आप कैसे भी अयोध्या चले, आप चाहे तो मुझे छोटे भाइ शत्रुध्न स्ंग वन भेज दे और आप दोनो अयोध्या चले जाये, अथवा हम तिनो भाइयो को वन भेज दे और आप मता सिता समेत लौट जाये, हे नाथ जो भी मेरे मन मे था मैने बता दिया इतना सुनते ही देवत्या लोग आकश से फुल बरसाने लगे यह सुनकर भगवान राम चुप ही रहे उसी समय राजा जनक के दुत आ पहुचे उठकर मुनी वशिश्ठ जी ने राजा जनक का हाल पुछ लिया तो दुतो ने बताया की राजा जनक भी यहा पहुचे है तो यह सुनकर सारा अयोध्यावासी खुश हुए तब मुनी ने कुछ भीलो को उनके साथ भेज कर राजा को बुलाने भेज दिया इसी तरह वह दिन भी बित गयाI
अगले दिन राजा जनक भी आगये और इसी तरह से और चार दिन भी निकल गया, फिर सुबह हुआ श्री राम गुरु वशिष्ठ जी के पास आये और कहने लगे हे नाथ यहा इतने दिनो से जनक्पुर और अयोध्या वासीयो का वनवास मुझसे देखा नही जाता अब सब कुछ आअप ही के हाथ मे है आप जल्द कुछ् करे, इतना कह पर श्री वशिष्ठ जी शर्म से झुक गाये और कहते है राजा ने तो तो तुम्हे वन भेजकर अपना वचन भी रख लिया और अपनी जान देकर यह भी सिध कार दिया की उनके प्यरे तुम्ही हो, तुम आश्रम जाओ, इत्ना कहकर मुनी जनक जी के पास गये और कहने लगे की ही राजन अब आप ही के हाथ साब कुछ है अब आप ही सव का भला कर सकते है, समय का विचार कर धीरज धरकर राजा भरत के पास चले, भ्ररत जी सामने से आकर उन्हे प्रणाम करते तब राजा जनक सब हाल कह सुनाते है, तब बरत जी कहते है हे तात आप तो पिता तुल्य है और आप इस तरह की बाते कहते है अब आप ही आज्ञा दे वैसा ही मै करु सारे ऋषि मुनी और आप भी यही पर उपस्थित है तो अब मुझे क्यु बोल रहे है बस आप आज्ञा दे, उनकी यह वचन सुनकर पुरा समाज जनक सहीत भरत का सरहाना करने लगा, इतना सुनने के बाद ऋषि मुनियो के साथ राजा जनक श्री राम के पास पहुच जाते है, यह देखकर सारे देवता और इन्द्र घबराकर सरस्वती जी को स्मरण कर उन्हे बुलाते है और विनती करते है की हे माता भरत जी का बुद्धी फेर दे जिससे देवताओ का काम बने पर सरस्वती जी कहती है की नही मै भरत जी का बुद्धी नही फेर सकती क्युकी उनके मन मे तो श्री राम और श्री सीता जी बसते है इतना कहकार सरस्वती जी ब्रह्म्लोक चली गयी Ι
मलिन मन वाले देवाताओ ने सलाह कर के बुरा षडयंत्र रचा Ι हर तरफ माया, भय, भ्रम, अप्रिती और उच्चाटन फैला दिया, इतना करने के बाद इन्द्र सोचने लगे कि अब काम बनना और बिगणना सब भरत के हाथ है Ι इधर राजा जनक जी मुनियो के टोली लेके भगवान राम के पास पहुचे तब रघुकुल के पुरोहित श्री वशिष्ठ जी ने अनुकुल वचन कह कर सुनाया, उन्होने पहले जनक जी और भरत जीका संवाद कह कर सुनाया, फिर भरत जी की कही हुइ सुन्दर बाते सुनाइ, फिर बोले हे राम तुम जैसा आज्ञा दो सब वैसा ही करे Ι इतना सुनने के बाद राम कहने लगे की आपके और राजा जनक के रहते हुये मै आज्ञा दु ऐसा नही हो सकता आप एक बार आज्ञा दे मै सौगन्ध खाकर कहता हु की जो आप्कहोगे मै वही करुंगा यह सुनकर मुनी और राजा जनक सब सकुचा गये और बह्रत जी का मुह तकतने लगे तब बह्रत जी ने सबसे विनती करके कहते है की आज मुझे मेरे बर्ताव के लिये माफ किजिये मै आज छोटे मुह से कठोर वचन कहने जा रहा हु Ι मैने मोहवश आपलका और पिता जी का आज्ञा ना मानकर भी यहा आया लेकिन फिर भी प्रभु ने मुझे अपना सेवक बनाया अतः हे प्रभु आप महान है और आप के समान आप ही है हे नाथ आपने आपने कृपा और भलाई से मेरा भला किया है, कहते कहते भरत जी के आखो मे प्रेम के आशु बहने लगे तब श्री राम ने उन्हे प्रेम से बह्रत जी को अपने पास बठाया और कहने लगे हे भरत इस दुनिया मे तुम्हारी तरह भाइ बस तुम ही हो , हे भरत तुम मुझसे वहि कराओ जो रघुकुल के लिये अछा हो और पिता जी के आज्ञा का पलन भी हो तुम वही करो और मुझसे करवाओ भी और सुर्यकुल का रक्षक बनो इसे सोचकर प्रजा और परिवार का भला और देखभाल करो यही सोचकर मै भी एक कठोर वचन कहता हु जब बुरे वक्त आते है तो श्रेष्ठ भाइ ही काम आते है Ι इतना सुनने के उपरांत भरत का दोष और दुख दोनो मिट गये Ι वे प्रसन्न मुद्रा मे बोले हे प्रभु आप जो बोले मै वहि करु, हे स्वामी आपकी अभिषेक के लिये मै गुरुजी का आज्ञा प्राप्त कर तिर्थो का जल लाया हु, हे स्वामी आपका आज्ञा होत ओ मै भी चित्रकुट का भ्रमण कर आउ Ι तब भगवान ने कहा अवश्य पर अत्री ऋषि से पहले आज्ञा प्राप्त करे Ι तब अत्री जी ने कहा यहा नज्दीक पहाडी के पिछे एक कुआ है इस तिर्थ जल कओ वही पर स्थापित करे जो भरतकुप के नाम से जाना गया फिर ऋषि का आज्ञा प्राप्त कर भरत जी जंगल मे घुमने निकलते है उन्होने पाच दिनो मे सारा तिर्थ घुम लिया छठे दिन अछा मुहुर्त जान कर भी श्री राम उनको विदा करने मे सकुचाए Ι यह देखकर भरत जी राम के समने आय और प्रणाम कर उन्होने कहा हे प्रभु आप आज्ञा दे आपकी आज्ञा से मै अब अजाउ चौदह वर्षो तक अवध का सेवा करु Ι दिनबन्धु भाइ भरत के वचन सुनकर श्री राम बोले मेरा और तुम्हारा पुरुषार्थ इसी मे है की हम पिताजी का आज्ञा का पलन करे Ι इतना कहकर प्रभु राम ने अपना खडाउ भरत को दिया जिसे भरत जी ने सिर पर धारण किया, तब भरत जी ने प्रणाम करके विदा मांगी तभी राम ने उन्हे गले लगा लिया Ι सेवक और मंत्री सब भरत जी का आज्ञा पाकर अपना अपना काम करने लगे, फिर श्री राम और माता सिता जी की को प्रणाम कर उनसे आज्ञा प्राप्त कर भरत और शत्रुद्धन दोनो चले Ι श्री राम, सिता जी और लक्षमण जी सब प्रणाम करते है और उन्हे विदा करते है माताओ को सुन्दर पालकियो मि बठा कर विदा करते है और ससुर जनक और सास से मिलकर उन्हे भी विदा करते है Ι फिर तिनो ही बण बृक्ष के निचे बठ कर सब का बडाइ करते है खासकर भरत का इसके बाद सब देवता अपना अपना दुख बताते है जिन्हे सुनने के बाद श्री राम सबको आस्वासन देते है Ι
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